Thursday 8 June 2017

मोटरसाइकिल पर सात आइटम- यात्रा संस्मरण (इरा टाक )



अक्टूबर 2014 : जयपुर में अपनी पांचवी एकल कला प्रदर्शनी के बाद कुछ दिन अपने दिमाग को ताजी हवा और नए विचार देने के लिए बेटे विराज के साथ मैंने अपनी मौसी गीता कपरुवान के घर श्रीनगर गढ़वाल घूमने का प्लान बनाया। जयपुर से श्रीनगर (गढ़वाल) पहुँचने में लगभग सोलह सत्रह घंटे लग जाते हैं मौसी का घर श्रीनगर बदरीनाथ हाईवे पर है, उनके घर के सामने की सड़क के ठीक नीचे विशाल अलकनंदा नदी बहती है 2013 में उत्तराखंड में हुई भयंकर विनाश लीला में मेरी मौसी का घर भी अलकनंदा नदी की भेंट चढ़ गया था कई महीनों तक उन्हें एक शरणार्थी की तरह जीवन बिताना पड़ा था उस हादसे के बाद 2014 अक्टूबर को यह मेरी पहली गढ़वाल यात्रा थी जयपुर से हरिद्वार वोल्वो बस से 12 घंटे का सफर होता है, सुबह हरिद्वार पहुंचकर मैं अपने एक पारिवारिक मित्र के यहां गई वहां से ऋषिकेश घूमने गए ऋषिकेश एक बहुत खूबसूरत जगह हैपहाड़, घने जंगल, नदी, लक्ष्मण झूला राम झूला, देशी विदेशी!
        ऋषिकेश में एक बहुत फेमस रेस्टोरेंट हैचोटीवाला अब वहां और दूसरे शहरों में भी उसकी कई शाखाएं खुल गई हैं रेस्टोरेंट के बाहर चोटी वाले मोटे पंडित का पूरा मेकअप करके एक आदमी को बैठाए रखते हैं ,  पर्यटक उसके साथ फोटो खिंचाते हैं ऋषिकेश में कुछ घंटे बिताने के बाद मैं और मेरा बेटा अगले दिन सुबह टैक्सी से श्रीनगर गढ़वाल के लिए निकल पड़े करीब दोपहर दो बजे मौसी के घर पर थे मेरी मौसी राजकीय कन्या इंटर कॉलेज में प्रवक्ता हैं उन्होंने खास तौर पर हमारे लिए छुट्टी ले रखी थी और बहुत बढ़िया पहाड़ी व्यंजन बना रखे थे-भट्ट की दाल, चावल, मडुए की रोटी, खीरे का रायता जो मुझे बहुत पसंद है, मेरी मां कुमायूंनी थीं, इसीलिए यह स्वाद बचपन से जुबान को चढ़ा हुआ है मौसी और मौसा जी ने अपने घर को दोबारा से रहने लायक बना लिया था उन्होंने बताया कि बाढ़ में तीन से चार फुट तक मिट्टी घर में भर गई थी पूरे घर को दोबारा से पेंट कराया घर का लगभग सारा ही सामान खराब हो चुका था उनके गहने भी नहीं मिले पर फिर भी जीवन है तो सब कुछ है हर चीज़ दोबारा बनाई जा सकती है बस जीवन को दोबारा बना पाना संभव नहीं !
 उन्होंने बताया कि बाहर घर के बगीचे की मिट्टी बाढ़ के बाद बहुत उपजाऊ हो गई है उन्होंने अपने घर में बहुत सारी सब्जियां लगा रखी थी जैसा आप हर पहाड़ी घर में देख सकते हैं पहाड़ी लोग बड़े मेहनती और बागवानी के शौक़ीन होते हैं विराज के लिए ये जगह किसी जादू से कम नहीं थी एक ही जगह  उसे भिंडी, लौकी, मिर्ची, टमाटर, बैंगन, तोरई, आलू ,लहसुन, प्याज, भुट्टे सभी चीजों के पौधे देखने को मिल गए इसके साथ साथ ही फलों के पेड़, अंगूर की बेल जिसमें अंगूरों के गुच्छे लटके हुए थे परलोमड़ी के अंगूरोंकी तरह वह अभी खट्टे ही थे
          मैं पहले भी कई बार वहां जा चुकी थी इसलिए घूमने से ज्यादा मुझे मौसी से बातें करने का लालच था फिर भी बच्चे को घूमाने के लिए हम अक्सर उनकी एक्टिवा पर सवार हो आसपास निकल जाते थे श्रीनगर में एक पुल ऐसा भी है जो बिलकुल लक्ष्मण झूले जैसा लगता है वहां से उतर कर नदी तक भी गए अब ये नदी डरावनी हो चुकी थी इसने कई लोगों को निगल लिया था
अगले दिन वहां से कुछ किलोमीटर दूरधारी देवीमंदिर देखने गए बाढ़ आने के बाद सेना ने लोगों की आस्था के प्रतीक इस मंदिर को लोहे का एक बहुत बड़ा प्लेटफार्म बनाकर नदी से कई फीट ऊपर रख दिया था मंदिर में घंटियों और बंदरों का बहुतायत था रास्ते में ढेरों साधु बैठे हुए थे मंदिर के दरवाजे पर खड़े होकर चारों तरफ नदी का विहंगम दृश्य दिखता है  मैं मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करती पर प्रकृति की ऊर्जा में मेरा अटूट विश्वास है
श्रीनगर से वापस जयपुर लौटना इस यात्रा का सबसे रोचक अध्याय हैं मुझे लम्बी यात्रायें रेल या हवाई जहाज से करना पसंद है बस तो केवल मजबूरी में लेनी पड़ती है हरिद्वार से जयपुर दोपहर 3:20 बजे की ट्रेन योग एक्सप्रेस में हमारा आरक्षण था श्रीनगर से बस में हम सुबह दस बजे ही निकल गए थे उम्मीद थी कि बस हरिद्वार दोपहर दो  बजे तक पहुंचा देगी मैंने बचपन से पहाड़ की खूब यात्रायें की हैं और मुझे सफर में कभी कोई परेशानी नहीं होती थी जैसे अक्सर यात्रियों को चक्कर आना, उल्टी आना, जी घबराना, जैसी शिकायतें होती हैं हमेशा मैंने यह देखा है कि जब मैं कहती हूं कि मुझे कुछ नहीं होता कभी, तो  मुझे वह हो जाता है श्रीनगर से निकलने के कुछ देर बाद ही मेरा जी घबराने लगा बहुत मुश्किल से खुद पर काबू कर रखा था ऐसा लग रहा था अब उल्टी होगी  उल्टी करने से मुझे बचपन से एक फोबिया है ऐसा लगता है कि उलटी कर के कहीं मर ही जाऊं !
    पहाड़ के दृश्य जो मुझे हमेशा से बहुत आकर्षित करते हैं इस समय अपना जादू चलाने में नाकामयाब थे मैं  चाहती थी किसी तरह मुझे राहत मिले दो घंटे बाद जब बस मिडवे पर रुकी तब वहां नीबू पानी पी कर मुझे कुछ राहत मिली
        हरिद्वार से ट्रेन का डिपार्चर टाइम दोपहर 3:30 का था, इसीलिए उम्मीद थी कि बड़े आराम से मैं हरिद्वार पहुंच जाऊंगी ऋषिकेश पहुंचते पहुँचते एक बज चुका था बस यहाँ पंद्रह -बीस मिनट रुकने वाली थी देर होने की आशंका से मैंने तुरंत एक दूसरी बस पकड़ ली जो ऋषिकेश जाने को तैयार थी ऋषिकेश से हरिद्वार आधा लगभग पच्चीस किलोमीटर है जिसे तय करने में पैंतीस- चालीस मिनट लगते हैं इसलिए दो बजे तक हरिद्वार पहुँचने की पूरी आशा थी ऋषिकेश से 15 किलोमीटर चल देने के बाद सड़क पर तगड़ा जाम मिला  बस धीरे धीरे खिसक रही थी लगा कि अभी तक पंद्रह  मिनट में जाम खुल जाएगा लेकिन दस, पंद्रह , बीस होते होते आधा घंटा बीत गया दो तो बस में बैठे बैठे ही बज गए चारों तरफ से लोगों ने गाड़ियां, ऑटो, मोटरसाइकिल फंसा दी थी किस को धीरज नहीं था निकलने की जल्दी में जो बचा था वो रास्ता भी कर बंद हो गया जैसे किसी रस्सी को खोलने की जल्दी में हम उसमें और मजबूत गांठ लगा देते हैं !
       ऐसी स्थिति में बस थी कि ना आगे जाए पीछे पास की पगडंडी से लोग गाड़ियां टैक्सियां निकाल रहे थे मैं बेचैन हो रही थी समझ नहीं रहा था कि अब क्या होगा? वक्त हाथ से निकल रहा था कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी जब वहां खड़े खड़े पौन घंटा हो गया और निकलने की सारी उम्मीदें टूट गई तो मैंने बस कंडक्टर से किसी बाइक वाले या टैक्सी वाले को रुकवाने का अनुरोध किया कंडेक्टर भला आदमी था वह मेरे लिए कोई वाहन तलाशने लगा वह समझ रहा था कि एक छोटे बच्चे के साथ मुझे एक लंबा सफर तय करना है अगर मेरी ट्रेन छूट गई तो मुझे परेशानी हो जाएगी हालाँकि सिर्फ टिकट का नुकसान होता लेकिन रेलवे स्टेशन से बस स्टैंड जाना और एक नई बस को तलाश करना अपने आप में थका देने वाला है
        करीब दो बज कर पचास मिनट (2:50) पर कंडेक्टर ने बस के बाहर से मुझे इशारा करके बुलाया उसने एक मोटरसाइकिल वाले को मुझे हरिद्वार तक छोड़ देने को राज़ी कर लिया था इतनी बुरी तरह जाम था कि केवल साइकिल या मोटरसाइकिल वाले ही निकल सकते थे और कई बार तो उन्हें सड़क से नीचे उतरकर कच्चे से अपनी मोटरसाइकिल निकालनी पड़ रही थी मेरे पास दो अटैचियां और एक लैपटॉप बैग था सामान ठसाठस भरा हुआ था- कुछ तो सर्दी के कपड़ों की वजह से और कुछ श्रीनगर से की गई शॉपिंग की वजह से !
 मैं दोनों अटैचियां हाथ में और बैग पीठ पर लिए बच्चे के साथ बस से उतर गई अब उम्मीद थी कि शायद मैं ट्रेन के छूटने से पहले पहुंच जाऊं ! बाइक वाले लड़के ने जैसे ही मेरे तीन सामान और चौथा बच्चा देखा तो उसने हमें बैठाने से इंकार कर दिया विराज और मुझे मिला कर कुल पांच आइटम !
उसके पास भी एक बैग था, तो हुए कुल  “सात आइटम वो बाइक को ट्रक बनाने का रिस्क नहीं लेना चाहता था
 उसने साफ़ मना कर दिया और मोटरसाइकिल आगे बढ़ा दी उस समय डूबते को वही तिनके का सहारा था मैंने आगे बढ़कर उसकी बाइक का हैंडल पकड़ लिया
 “भाई आपको हमें ले कर जाना ही होगा हम एकदम नए हैं बहुत दूर से आए हैं और अगर हमारी ट्रेन छूट गई तो हमें बहुत परेशानी होगी प्लीज भैया प्लीज”- मैं तो उसके पीछे ही पड़ गई
वह मना करने लगा-“ अरे नहीं नहीं..मैडम ! बच्चा भी है दो अटैचियां एक बैग ! मैं नहीं ले जा पाऊंगा
 “आपको ले जाना होगा भइया..मैं आपका बैग भी पकड़ लेती हूँ बच्चा आगे बैठ जायेगा मैंने बाइक पर पांच लोग जाते देखें है और सामान ज्यादा भारी नहीं है”-मैंने किसी तरह उसे समझाने की कोशिश की
 आखिर वो दुबला पतला पहाड़ी लड़का पिघल गया और उसने हमें अपनी मोटरसाइकिल पर लाद लिया दोनों अटैचियां मेरे पैरों पर और दो बैग पीठ पर और बच्चा आगे !
 बड़ी मुश्किल से किसी तरह भीड़ में वह बाइक को निकाल रहा था कारों टैक्सियों बसों से लोग झांक झाँक के देख रहे थे और हमें देख कर हंस भी रहे हंस रहे थे मुझे उन्हें हँसते देख शर्म रही थी कई जगह उसे मोटरसाइकिल को कच्चे पर उतारना पड़ता पहाड़ी रास्ता थोड़ा ऊंचा नीचा था तो जब वह बाइक नीचे उतारता तो मैं दोनों अटैचियां और बैग लेकर उतर जाती और कच्चे रास्ते को पैदल पार कर फिर सड़क पर बाइक आते ही मैं दोबारा उसके पीछे बैठ जाती इतना सामान लेकर पैदल चलना किसी कमांडो ट्रेनिंग से कम नहीं होगा शायद !
  थकान के मारे मेरा शरीर चूर हो रहा था इतना भारी बोझ उठा कर चलने की आदत जो नहीं थी भारी वजन और बाइक पर ऐसी स्थिति में बैठना मेरे लिए तकलीफदेह हो रहा था सबसे आनंद में तो विराज था, आगे बाइक की टंकी पर बड़े आराम से हवा में हाथ फैलाए वो खुश दिखाई दे रहा था
 मैंने उस बाइक वाले लड़के से बात की तो पता चला कि वह गोरखा रेजिमेंट का सिपाही था और छुट्टियां बिताने के बाद वापस ड्यूटी ज्वाइन करने जा रहा था उसने मुझे बोला कि आगे उसका एक साथी इंतजार कर रहा है
 मैंने बोला –“आप मुझे बस वही तक छोड़ देना आगे मैं ऑटो से चली जाऊंगी
 मैंने उस पर अपने नाना और अपने चचेरे और मौसेरे भाइयों के मिलिट्री नेवी में होने की धोंस भी दी ताकि उसे लगे कि वह अपना ही काम कर रहा है बार बार उतरते चढ़ते समय मेरे कदम डगमगा रहे थे मेरी हिम्मत टूट रही थी फिर दिमाग में आया ट्रेन छूट जाएगी कोई जान तो नहीं जाएगी क्यों इतना परेशान हो रही हूँ सवा 3:00 हो चुके थे और अभी भी स्टेशन 5 किलोमीटर दूर था अब उम्मीद के दिए बुझ गए थे फिर भी इस बात पर संतोष था कि उस जाम में से निकल आए वरना वहां के हालात देखते हुए तो ऐसा लगता था कि रात भी वहीं बितानी पड़ जाएगी
  लगभग बीस मिनट की कठिन और थका देने वाली यात्रा के बाद वो चौराहा आया जहाँ उसका साथी उसके इंतज़ार में खड़ा था   अपने दोस्त को पूरेघर परिवारके साथ देख वो एक बार तो अचकचा गया
बाइक वाले सिपाही कोधन्यवाद कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे दिल से ढ़ेरों दुआएं निकल रही थी उसने इतनी परेशानी उठाकर हमें वहां तक पहुंचाया था उससे विदा लेकर मैंने जल्दी से सड़क क्रॉस की और एक ऑटो पकड़ा अभी भी स्टेशन 2 किलोमीटर दूर था 3:30 बज चुके थे ट्रेन को गए 10 मिनट हो चुके होंगे ! मन पशोपेश में पड़ गया
 “क्या करूं अब सीधे बस स्टैंड के लिए ही चलती हूँ
योगा एक्सप्रेस हरिद्वार से चलती है तो यह उम्मीद नहीं थी कि बाहर से रही है तो लेट हो जाएगी ट्रेन तो वक्त पर निकल ही गई होगी लेकिन फिर भी ऑटो रेलवे स्टेशन के लिए कर लिया   ऑटो वाले को कम से कम दस  बार बोला होगा –“जल्दी करो भैया थोडा तेज़ चलो
  घड़ी में तीन पचास हो रहे थे गाड़ी को गए तो 20 मिनट हो चुके होंगे !
स्टेशन पर उतरते ही कुलियों ने मधुमक्खियों की तरह घेर लिया-
आइये मैडम कौन सी ट्रेन है?”
 “ जयपुर की ट्रेन है योगा एक्सप्रेस ...चली गई क्या ?”-मैंने संदेह से पूछा
मैडम गाड़ी खड़ी है, मैं चलता हूं सौ रुपये लूँगा” -कहते हुए एक हट्टे कट्टे कुली ने अटैचियाँ मेरे हाथ से झपट ली
 मैंने बैग भी उसे थमा दिया इतनी थकान के बाद खुद को उठाना ही भारी पड़ रहा था हम ने दौड़ लगा दी गाड़ी दो नंबर प्लेटफार्म पर खड़ी हुई हमें सामने से नजर रही थी गाड़ी के दरवाज़ों पर लटके लोगों से मैंने चिल्ला कर कहा-“भैया प्लीज ! गाड़ी चल जाए तो चेन खींच देना..हम बस पहुँच ही रहें हैं
 कुली अपने आदत के मुताबिक एक तेज भाग रहा था, विराज भी कुली के साथ कदमताल मिला रहा था भागते हुए ओवरब्रिज से प्लेटफार्म नंबर 2 पर जाना मैराथन से कम नहीं लग रहा था मेरी टांगों ने जवाब दे रहीं थी, धड़कन अपनी रफ्तार से 3 गुना बढ़ चुकी थी मुझे पीछे देखकर विराज घबरा रहा था पर मैंने बोला कि तुम जाओ मैं रही हूं
 प्लेटफार्म पर पहला कदम पड़ते ही ट्रेन चल पड़ी, सीढ़ियों से उतरते ही जो पहला डिब्बा मिला उसी में कुली ने सामान और बच्चे को चढ़ा दिया, मैंने भी भाग कर ट्रेन के पायदान पर कदम रख लिया कुली को 100 की बजाए 200 रुपए पकड़ाए इस समय हर वो आदमी जिनकी वजह से मैं ट्रेन पकड़ पायी देवदूत से कम नहीं लग रहे थे
   वहीँ एक सीट पर हम बैठ गए, बोतल से पानी पिया 15 20 मिनट धड़कनों के शांत होने का इंतजार किया टांगों को आराम दिया उसके बाद ट्रेन में अंदर ही अंदर चलते हुए हम अपने डिब्बे सी 2 तक पहुंच गए यात्री बातें कर रहे थे ट्रेन लेट हो गई वैसे तो कभी लेट नहीं होती है मैं मन ही मन हंस रही थी- हमारी मेहनत और हमारे ट्रेन पकड़ने के जुनून को देखते हुए सारी कायनात हमें ट्रेन से मिलाने को तुल गयी थी ;)
     और हमारे पहुंचते ही ट्रेन ऐसे इतरा के चल पड़ी जैसे बस हमारे ही इंतजार में खड़ी हो !
मेहरबां आते आते बहुत देर कर दी
    और मेरा कुदरत में यकीन और पक्का हो गया कि वह मुझे बहुत प्रेम करती है और मेरे लिए हमेशा अच्छा सोचती है!
 इस तरह गढ़वाल की यात्रा सुखद रोमांचक होते होते एक जंग में बदल गयी थी !  वक़्त के खिलाफ जंग ! और हमने  जंग जीत ही ली
वो कहते हैं ... All is well if end is well
इरा टाक


4 comments:

  1. wow, Era, your writing style is very impressive. maza aa gaya

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया , जयंती मैम :)

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  2. वाह क्या बात! शब्द चित्र लेखन अद्भुत!

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