खंडे और खावण
खंडों का शहर जोधपुर
कहानियां
तितलियों की तरह हवा में उड़ती हैं, लोगों पर मंडराती हैं, बारिशों में भीगती हैं और मैं उनको पकड़ने
के लिए दबे पाँव जुगाड़ लगाती हूँ. शहर, गाँव, ट्रेन, बस, विमान हर जगह मेरे कान कहानियों की
फुसफुसाहट सुनने को सतर्क रहते हैं.जोधपुर जाने की सबसे बड़ी वजह थीफिल्म की
कहानी के लिए रिसर्च, तो सोचा साथ में फोटोग्राफी और घूमना भी हो जायेगा. अपनी दोस्त अदिति अग्रवाल, जो पक्षियों के पंखों पर मिनिएचर पेंटिंग
करती हैं और अपने दस साल के बेटे गुरु विराज को तैयार किया.चार दिन के जोधपुर प्रवास के लिए कार में
इतना सामान भर लिया, कोई देख तो सोचे कि घर शिफ्ट कर रहें हों. नौ नवम्बर की गुलाबी सर्दी में यात्रा
शुरू की, लॉन्ग ड्राइव, नए पुराने गानों के साथ सुर मिलाते, रास्ते में रुक रुक कर फोटोग्राफी, कहीं चाय कहीं कॉफ़ी और कुंतल भर हंसी
मजाक, अब
इससे ज्यादा खूबसूरत सफ़र क्या हो सकता है !
जयपुर से जोधपुर छह घंटे का रास्ता है. सबसे पहले जोधपुर से सोलह किलोमीटर पहले
बनाड़ में रुकना हुआ यहाँ कांता बुआ के घर में भोजन किया.कांता जी नाज़र हैं, जिन्हें लोग, किन्नर या ट्रांसजेंडर कहा जाता है. बुआ से मेरी मुलाकात एक महीने पुरानी ही
थी पर उनका आवभगत और प्रेम जैसे बरसों पुराना हो. उनके चेले आलिया और गुंजन ने भी गर्मजोशी
से स्वागत किया. अक्सर लोग किन्नरों से डरते हैं, पर ये भी हमारी तरह इंसान हैं जिनका दिल
धडकता है, प्रेम करता है, अपनों के लिए तरसता है. उनकी कहानियां सुनी, उनके जीवन के बारे में करीब से जानने
समझने की कोशिश की तो मन भीग गया. क्यों घर वाले बेरहम हो उनको उस कारण से
परिवार से, समाज
से महरूम कर देते हैं जिसमें उनकी कोई गलती भी नहीं होती. वो सबके लिए दुआ मांगते हैं पर उनके लिए
दुआ मांगने वाला कोई नहीं होता. भरे हुए मन से फिर मिलने के वादे के साथ
हमने आगे प्रस्थान किया.देवस्थान विभाग के गेस्ट हाउस में हमारी ठहरने की व्यवस्था थी. रेलवे स्टेशन के भीड़ भरे रास्ते से होते
हुए लगभग चार बजे जोधपुर यानि सूर्यनगरी पहुंचे.जोधपुर में लगभग 24 घण्टों में से सूर्य देवता 8.30 घण्टे दर्शन देते हैं, जिसके कारण इसका नाम सूर्यनगरी (सनसिटी) पड़ गया. जगह जगह “I LOVE SUNCITY” के सेल्फी पॉइंट बने हुए
नज़र आते हैं.
थोड़ी देर में ही प्रसिद्ध कृषि व
पर्यावरण पत्रकार मोइउदीन चिस्ती साहब तशरीफ़ ले आये. कहाँ से बात शुरू की जाये, कौन
कौन सी जगह घुमा जाये और किन किन से शहर के बारे में रोचककिस्से और जानकारियां मिल
सकती हैं? इस
बात पर विचार विमर्श करने के बाद हम तीनों उनके साथ निकल पड़े.
पहले, राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता हासिल पर्यावरणविद श्री प्रसन्नपुरी
गोस्वामी जी के हर्बल गार्डन गए. गोस्वामी जी ने, जो एक रिटायर्ड प्रिन्सिल हैं कई सालों
की अथक मेहनत के बाद सैकड़ों बीघा पथरीली बंज़र ज़मीन पर औषधीय गुण के पेड़- पौधे
लगा कर इस इलाके को हर भरा कर दिया. उनके बड़े पुत्र की इन्हीं पौधों में कीटनाशक डालते हुए दुर्घटनावश
मृत्यु हो गयी थी. वो इन पौधों में अपने बेटे को देखते और बड़ा होता महसूस करते हैं.उनसे कई मुद्दों पर बात की। उन्होंने हम को बड़ी बारीकी से औषधीय
पौधों की जानकारी दी। हठजोड़, स्टीविया, अलोवेरा, अर्जुन, अजवायन, मिंट इत्यादि औषधीय गुणों वाले पौधों से रूबरू करवाया।Steviarebaudiana,चीनी से ३० से १५० गुना तक ज्यादा मीठा होता है, शुगरफ्री इसी से बनाया जाता है. इन
सभी पौधों को देखना, छूना और उनकी गंध महसूस करना एक अलग अनुभव था. नवम्बर के दिन थे तो सूरज भी विदा लेने
की जल्दी में था. शाम गहराने लगी थी.गोस्वामी जी के चमत्कार को नमन करते हुए हम वहां से मंडोर की तरफ बढ़
चले.
मंडोर गार्डन में मारवाड़ की प्राचीन राजधानी में जोधपुर के शासकों के स्मारक हैं। हॉल ऑफ
हीरों में चट्टान से दीवार में तराशी हुई पन्द्रह आकृतियां हैं जो हिन्दु देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करती है। वहां एक
संग्राहलय भी है . जो हमारे पहुँचने तक बंद हो चुका था.मंडोर जाने की मुख्य वजह सुरभि सारस्वत थीं,
जिन्होंने मुझे कई दिन पहले से ही रात्रि भोज का निमंत्रण दे दिया था.वे
एम्स में जॉब करती हैं और बहुत अच्छी कवियत्री भी हैं. सुरभि से मेरी मुलाकात २०१३ में बीकानेर
साहित्य और कला उत्सव के दौरान हुई थी, जहाँ हमने साथ में अपनी कवितायेँ पढ़ी थीं. उसके
बाद बस फेसबुक के जरिये ही संपर्क में थे.उनके घर गुलाब जामुन की सब्जी खायी, जिसको
यहाँशाही सब्जी भी बोलते हैं.
कहा जाता है कि जोधपुर की दो ही चीजें मशहूर हैं - एक खंडे और दूसरे खावण
खंडे . जोधपुर
का इमारती पत्थर जिसे यहाँ की बोली में खंडे कहा जाता है, अपनी मजबूती और सौंदर्य के लिए
प्रसिद्ध है, वहीँ
यहाँ के “खावण
खंडे” यानि
खाने पीने के शौक़ीन लोग जिन्हें अंग्रेजी में Foodie कहा जाता
है, भी कम
विख्यात नहीं हैं.इसका
अहसास हमें अगले तीन दिनों में हो गया जब हालचाल पूछने केबाद हर मिलने वाला हर
शख्स कहाँ से क्या खाना है, कहाँ से
कौन से मिठाई लेनी है, क्या
प्रसिद्ध है की सलाह देता हुआ नज़र आया.यहाँ
खाने को लेकर बड़ी बड़ी शर्तें लगायीं जाती रहीं हैं.
मुझ जैसे डाईटिंग पर चल रहे लोगों के लिए ये एक
तरह का मानसिक अत्याचार था.
सुरभि के घर कला, साहित्य और शहर के बारे में बात करने के बाद हम वापस जोधपुर शहर
की गलियों में पहुँच गए. चिश्ती साहेब हमें एक कलाकार परिवार
से मिलवाना चाहते थे. सात
नवम्बर को दिवाली थी तो अभी भी शहर दीपावाली के खुमार में डूबा हुआ था. रौशनी
की लड़ियाँ घरों दुकानों पर सजी हुई थीं, गलियों में अभी भी पटाखे चलाये जा रहे थे.
पटाखों से बचते-बचाते हम खांडा फलसा स्थित जालप मोहल्ला
आ गए। गली संकरी थी तो कार नहीं जा सकती, हम पैदल चलते फोटोग्राफी करते हुए स्थानीय लोगों के लिए कुछ अजूबा
थे. सबसे पहले गली के चौराहे पर “एलोजी महाराज” की मूर्ति के दर्शन हुए, एलोजी को पश्चिमी राजस्थान में लोक देवता माना जाता है. एलोजी होलिका के होने वाले पति थे, होलिका के होली में दहन हो जाने पर वो अपना मानसिक संतुलन खो
बैठे थे. और उन्होंने इसी तरह होलिका को याद
करते हुए अपना जीवन बिताया. मान्यता है कि नयी दुल्हन पर पहला हक
एलोजी का होता है.एलोजी को गॉड ऑफ़ सेक्सुअल पॉवर माना
जाता है.
एलोजी की लोककथा से गुज़रते हुए हम आयल पेंटिंग की मशहूर
ओ मारूफ़ अर्टिस्ट वी. चंद्रा व्यास के घर पहुंच
गये. उनका घर एक अलग तरह की दुनिया थी. सारेगामा कारवां रेडियो पर पुराने गाने पूरी मस्ती में बज रहे
थे, घर में घुसते ही एक बड़ा सा तख़्त लगा
हुआ था. उससे सटी दीवार पर चंद्रा की माता जी
कीऔर उसने जुड़ी यादों की बड़ी बड़ी तस्वीरें लगी हुई थी.चंद्रा आज के टेक्नोलॉजी दौर
में भी सोशल मीडिया से दूर हैं, अपनी स्वर्गवासी माँ और
जीवित पिता की सेवा और कला साधना में अविवाहित रह कर जीवन बिता रहीं हैं. वो आज भी अपनी माँ का श्रृंगार करती हैं, उनका जन्मदिन मनाती हैं. प्रेम और भक्ति के अलग ही रंग देखने को मिले. उनके पुराने मकान में आधुनिक और प्राचीन दोनों तरह के सामान थे. कुछ दीवारों पर सजी पेंटिंग्स, कुछ अधूरे चित्र जो पूरे होने के इंतज़ार में उम्मीद से भरे हुए थे, कुछ सलीके से, कुछ बेतरतीब फैला हुआ
सामान और उनके साथ वातावरण में घुला हुआ संगीत. एक कलाकार का दुनिया से अलग अपना रचा हुआ एक अद्भुत संसार था. उनके द्वारा रामायण पर बनाई जा रही पेंटिंग्स को देखा, उनके कला सृजन के बारे में बातें कीं।चंद्रा और उनके पिता जी जीवन
पर्यंतएपिलेप्सी से पीड़ित अपनी पत्नी की सेवा करते रहे, और उनके जाने के बाद भी उनकी यादों में लीन हैं. उनके पास कहने को बहुत कुछ था पर सुनने को वक़्त कम पड़
रहा था, घडी के कांटें ग्यारह बजा कर चलने का इशारा कर रहे थे. सुबह से सफर पर निकले थे तो थकान भी होने लगी थी खासकर
गुरु के लिए तो एक तरह से आर्मी ट्रिंग ही थी. उनकी बातों की मिठास वहां के गुलाबजामुनों से भी ज्यादा मीठी और मुलायम थी.शाम पौने 5 बजे शुरू हुई विविधरंगी
यात्रा रात 11:10 पर पूर्ण हुई.
थके होने की वजह से अगले दिन नींद नौ बजे खुली. ग्यारह बजे तैयार होकर हम जालोरी गेट पहुंचे, वहां मिर्ची बड़े और कचौड़ी खायी. फिर ओसियां की
तरफ निकल पड़े.ओसियां जोधपुर जिले का एक प्राचीन
क्षेत्र है तथा वर्तमान में एक तहसील के रूप में विस्तृत है। ओसियां में सुंदर तराशे हुए जैन व ब्राह्मणों के ऐतिहासिक मन्दिर है।
इनमें से सबसे असाधारण हैं आरंभ का सूर्य मंदिर और बाद के काली मंदिर, सच्चियाय माता मन्दिर और
भगवान महावीर मन्दिर।
यह काफी प्राचीन नगर है पूर्व में इसका नाम उपकेश था। करीब एक घंटे की ड्राइव के बाद ओसियां पहुंचे. रास्ते में पवन चक्की और हिरन खूब दिखाई दिए.
ओसियां में जीतेन्द्र ने जोवहांके मूलनिवासी हैं, बारीकी से हमेंओसियां के बारे में बताया.यहाँजगह जगह पुराने स्तम्भ बिखरे पड़े है जिन पर पुरात्व विभाग को
ध्यान देने की ज़रूरत है.देख रेख के अभाव में “कातन बावड़ी” जीर्ण शीर्ण हो रही है,जिसका पेटर्न आभानेरी की प्रसिद्ध बावडियों की तरह ही था.
मान्यता है ओसवाल जैन यहाँ घर बसा के नहीं रह
सकते हैं. सच्चियाय माता के दर्शन करने बड़ा हुजूम रहता है. इन जैन मंदिरों में हुई नक्काशी की वजह से इसे मिनी खजुराहो भी
कहा जाता है. सूखा साग बेचनेकी कई दुकाने आकर्षित करती हैं, जिसमें कैर सांगरी, ग्वार फली, आंवला आदि प्रमुख है.
ओसियां में रेत के
धोरे तीन से चार किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले हुए हैं, जहाँ ऊँटों और जीप सफारी होती है. ऊँचे नीचे रेत के टीलोंपर जीप की सवारी रोलर कोस्टर का फील दे रही
थी. स्थानीय भाषा में तेज़ आवाज़ में बजते गाने, सुनहरी रेत पर गोते खाते हुए हम... एक अलग ही अनुभूति थी!
सूरज धीमे धीमे शाम के अँधेरे में खो रहा था, उसको कैमरे में ठीक उस वक़्त कैद किया जब वो एक झोपडी की
चोटी पर टिका हुआ था.
वहां से जोधपुर लौट कर रात
के खाने के बाद हम दूध फीनी खाने “दूध मंदिर” पहुँच गए.
रात में मिट्टी के सिकोरों
में दूध फीनी खाने का लुत्फ़ अलग ही था. दूध फीनी खाने के लिए वहां
दुकानों पर रात के बारह –एक बजे तक खूब भीड़ जुटी
रहती है, सर्द रातों में कड़ाई में खौलते दूध की महक और हथेलियों
में थामे हुए सिकोरों की गर्माहट रूह को सुकून देती है.
प्रवासी
पक्षियों से मुलाकात
अगली
सुबह जल्दी उठ गये क्यूंकि पक्षियों की फोटोग्राफी करने जाना था. बर्डवाचिंग का नया शौक लगा है तो सुबह छह बजे ही
अपने ठिकाने से निकल पड़े.चिश्ती जी ने बर्ड फोटोग्राफर शरद पुरोहित जी से
मुलाकात करवाई. शरद को जंगल- जानवरों से अतिशय प्रेम है .वो मानते हैं कि प्रकृति सत्य और उसके कायदे
सच्चे हैं बाकी सब छद्म . उन्होंने “यूथ अभ्यारण्य” की स्थापना की. जोधपुर और आसपास के इलाके में वो लोगों को पशु
पक्षियों के प्रति जागरूक कर रहे हैं. साँपोंपर उन्होंने बहुत रिसर्च की है. विलुप्त होती हाउस स्पैरो, यानि गौरैया के लिए जगह जगह उन्होंने और उनके दोस्तों
ने बर्ड हाउस लगाये हैं.गोरेश्वर
महादेव तालाब गए जहाँ तरह तरह की चिड़ियाँ दिखीं जिनमें पोंड हेरॉन, नॉब बिल्ड डक,northern shoveler, common
coot,tuftedduck,ferruginous duck, indian spot billed duck, pied
किंगफ़िशर, रिवर
टर्न, पर्पल
मूर हेन आदि प्रमुख थी. शरद जी
ने हमें बारीकी से हर तरह की बर्ड की पहचान बताई.
उसके बाद हम बडली
प्राचीन तालाब गये, जो कभी
गाँव की प्यास बुझाता था आज माइनिंग के कारण अस्तित्व की तलाश में खुद प्यासा हुआ जा
रहा . जल की
आवक रोक दी गई हैं . वहां
रफ़ पक्षी हजारों की संख्या में मौजूद थे. जब वो
उड़ते हैं तो लगता है बिजली चमक रही है.
उनसे विदा लेने के बाद हम तीनो वहीँ
पास में कायलाना झील पहुँच गए, झील चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरी
हुई है. ढेरों मछलियाँ झील में भरी हुई थीं और स्थानीय
लोग और टूरिस्ट उनको ब्रेड और आटा खिलाने में व्यस्त थे. यहाँ पता चला कि पर्यटन स्थल होने के
साथ साथ ये सुसाइड स्थल भी है, परीक्षा परिणाम आने के बाद बहुत लोग
इसमें समाधी ले लेते हैं. झील के किनारे प्रशासन दुआरा जीवन में
निराश न होने, गुस्सा न करने, आत्महत्या न करने जैसे कई प्रेरणास्पद
कथन लिखवाए हुए थे. कायलाना में नौकायन करते हुए मुझे उत्तराखंड की टिहरी झील बहुत याद आई. यहाँभीकोर्मोरेंटऔरएर्गेट
पक्षीबहुतायत में थे. जल, जंगल और ज़मीन के करीब होना प्राणों
में एक नयी उर्जा और शांति भर देता है. धूप तेज हो चली थी, तो मचिया बायोलॉजिकल पार्क देखने का
इरादा स्थगित कर दिया.
उसके बाद माधव राठौर से मिलने पहुचे. पेशे से लॉ ऑफिसर माधव हिंदी के उभरते
युवा लेखक हैं, उन्होंने अपना कहानी संग्रह “मार्क्स में मनु ढूँढती” भेंट किया और जोधपुर की प्रसिद्ध
आइसक्रीम खिलाई.
फिर वहां से हमउम्मैद भवन पैलेस गए.महाराजा उम्मैद सिंह ने इस महल का निर्माण सन १९४३ में
करवाया था। संगमरमर और बालूका पत्थर से बने इस महल का दृश्य पर्यटकों को खासतौर पर लुभाता
है। बलुआ पत्थर से बना भवन अभी पूर्व शासकों का निवास स्थान है जिसके एक हिस्से
में होटल चलता है और बाकी के हिस्से में संग्राहालय।इस महल के संग्रहालय में पुरातन युग की घड़ियाँ और चित्र भी संरक्षित हैं।
यही एक ऐसा बीसवीं सदी का महल है जो बाढ़ राहत परियोजना के अंतर्गत निर्मित हुआ।
जिसके कारण बाढ़ से पीड़ित जनता को रोजगार प्राप्त हुआ। यह महल सोलह वर्ष में बनकर
तैयार हुआ था।
इसके बाद दो चार मुलाकातों के बाद हमशाम को घंटाघर पहुंचे, घंटाघरऔर उसके आसपास काफी बड़ा बाज़ार है. पुराने शहर की गलियों में चक्कर
लगाये. रंगबिरंगी रौशनी से नहाया हुआ क्लॉक टावर बहुत
सुन्दर लग रहा था पर उसके आसपास बहुतगन्दगी थी,साथ ही वायु प्रदुषण बहुत ज्यादा लगा. जहाँ पर मुंह पर रुमाल लगाये बिना खड़े
रहना मुश्किल था.चतुर्भुज के गुलाब जामुन लेने के बाद वापस गेस्ट
हाउस पहुंचे.
मेहरानगढ़, ज़िपलाइनिंग और कवि
अगले दिन जाना था और सबसे महत्वपूर्ण
काम बचा हुआ था. मेहरानगढ़ किले को देखने और वहां ज़िप लाइनिंग करना. मेहरानगढ़दुर्ग पहाड़ी के बिल्कुल ऊपर
बसे होने के कारणराजस्थान के
सबसे खूबसूरत किलों में से एक है।जब जोधपुर दुर्ग की नींव ( सन् 1459 में ) रखी गई तब शुभ सगुन तथा उसके स्थायित्व के
लिए राजिया भाम्बी मेघवाल नाम का पुरुष उसमें जिन्दा चुना गया ! जिस पर खजाना और नक्कारखाना की इमारतें
बनी हुई हैं ! इस क़ुर्बानी के लिए राव जोधा ने उसके वंशधरों को कुछ
भूमि सूरसागर (जोधपुर) के पास ‘राजबाग’ नाम से इनायत की व उन्हें नि:शुल्क सेवा से बरी कर दिया. इस किले के सौंदर्य को
श्रृंखलाबद्ध रूप से बने द्वार और भी बढ़ाते हैं। किले से देखने पर जोधपुर शहर के
नीले मकान नज़र आते हैं,
नीले रंग के पीछे की कई कथाएं प्रचलित हैं. कहते हैं भगवान शिव के
नीलकंठ होने के कारण एक सम्प्रदाय विशेष ने अपने घरों को नीले रंग में रंगवाया था. नीले रंग की वजह से मकान
ठन्डे भी अधिक रहते हैं,
धीरे धीरे अन्य लोगों ने भी अपने घरों को नीला रंगवा लिया जिस वजह
से जोधपुर को “ब्लू
सिटी” का
नाम मिला. हालाँकि
अब नीले रंग में रंगें मकानों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है.
किले
के अंदर कई भव्य महल, अद्भुत
नक्काशीदार किवाड़, जालीदार
खिड़कियाँ और प्रेरित करने वाले नाम हैं। इनमें से उल्लेखनीय हैं मोती महल, फूल महल, शीश महल, सिलेह खाना, दौलत खाना। इन महलों में
भारतीय राजवंशो के साज सामान का विस्मयकारी संग्रह निहित है। इसके अतिरिक्त पालकियाँ, हाथियों के हौदे, विभिन्न शैलियों के लघु
चित्रों, संगीत
वाद्य, पोशाकों
व फर्नीचर का आश्चर्यजनक संग्रह भी है.
किले को
देखने के बाद ज़िप लाइनिंग का नंबर आया. कई सौ मीटर ऊंचाई परतारसे एक जगह से
दूसरी जगह जाना. मुझे ऊंचाई से डर लगता है, औरगुरुतो मुझ से भीज्यादा डरता है. तो केवल अदिति को ही ज़िप लाइनिंग करनी
थी, हमउसका इंतज़ार करने को तैयार थे, पर फिरसोचा, मन को समझाया, डर से जीतने का मन करने लगा. डर की वजह से हम कई बार जीवन के
महत्वपूर्ण आनंद खो देते हैं. तो खुद को तैयार, गुरु को राजी किया किया. अब अदिति बहुत खुश थी हम तीनों ब्लैक
कैट कमांडो की तरह कमरपरबेल्टहुक्स कस कर तैयार थे. किसी जंग पर जाने जैसा अनुभव हो रहा
था.सबकोपहले क्रूकी तरफ से ट्रेनिग और दिशा निर्देश दिए
गये. हम तीनों को मिला कर उस बैच में तीन लोग और थे. पति पत्नी दिल्ली से और एक लड़की
डेनमार्क से. इतनी ऊंचाई से केवल एक तार के सहारे एक जगह से
दूसरी जगह जाना कम डरावना नहीं था, पहली बार नीचेदेखा तो लगा कि “लौट जाएँ” फिर जबदूसरे गये तो सोचा ये कर सकते
हैं तो हम क्यों नहीं. ऊंचाई से नीचे हवा में लटके हुए देखने
में बहुत रोमांच हुआ. दूसरे पॉइंट पर पहुँचने के बाद फिर
थोड़ी सी ट्रैकिंग के बाद अगली ज़िप लाइनिंग, इस तरह छह ज़िप लाइनिंग करने में करीब
एक घंटे का वक़्त लगा. इस दौरान हमने एक दूसरे के विडियो
बनाये. उनतीनों से भी अच्छी पहचान हो गयी. एक नया अनुभव लेकर मेहरानगढ़ किले से
विजयी भाव में बाहर निकले. दोपहर के ढाई बज चुके थे. राजस्थानी
और हिंदी भाषा के वरिष्ठ कवि श्री मीठेश निर्मोही जी का भोजन के लिए निमंत्रण था, उनका बार बार फ़ोन आ रहा था, पर किला इतना बड़ा थाकि वहां जाने के
बाद निकलना आसान नहीं होता.
मेहरानगढ़
से देवस्थान विभाग के डिप्टी कमिश्नर श्री ओ पी पालीवाल जी से मिलने गए,जिन्होंने इस यात्रा के
दौरान हमारे रहने और घूमने का इंतज़ाम कराया था, तो उनसे शुक्रिया कहे
बगैर ये यात्रा अधूरी रहती. कृतज्ञ होना सबसे ज़रूरी व्यवहार है. चाय के साथ जोधपुर के
बारे में कुछ और ज़रूरी बातें मालूम हुईं.
फिर
हम वापस रेलवे स्टेशन की तरफ लौट चले, जहाँ निर्मोही जी हमारा इंतज़ार कर रहे थे, मिलना दोपहर में तय था पर
देर पर देर होती चली गयी और शाम को चार बजे उनसे मिलना हो पाया उन्होंने बड़े धीरज
से हमारा इंतज़ार किया और बहुत ही सहज भाव से मिले. कोटा से आई कलाकार और
कवियत्री प्रवेश जी से भी मिलवाया. रवे डोसे के साथ कुरकुरी बातों का लुफ्त लेते हुए वो जोधपुर में
आखिर शाम थी, विदा
लेते समय मीठेश जी ने मुझे अपना काव्य संग्रह “चिड़िया भर शब्द” भेंट किया. जिसमें चिड़ियाँ के पंखों
जैसी नरम, छोटी
– छोटी
और खुशनुमा कवितायेँ हैं.
जोधपुरआओ तो "पधारो"
और जाओ
तो भी "पधारो" विश्वविख्यात है तो हमारा जोधपुर से
वापस जयपुर की तरफ पधारने का समय आ गया था, मीठेश जी से आज्ञा लेते हुए करीब पांच बजे हमने
वापस जयपुर की तरफ जाने वाली सड़क का दामन पकड़ा.डूबते सूरज को एक बार फिर
कैमरे और आत्मा में कैद किये, जोधपुर की यादें, अनगिनत मुलाकातें, रंग,
अनुभव लिए हाथ कार के स्टेरिंग पर थे. अब ये सब कागज पर पिरोने
और मिर्ची बड़ों से बढ़ी चर्बी को मसल्स में बदलने का समय था.
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