Monday 24 January 2022

कि तुम थे - इरा टाक

 

यकीन दिलाने को खुद को

कि तुम थे

मैं गयी हर उस जगह

जहां हम साथ जाते थे

हर उस जगह में महसूस किया

तुम्हारा होना

वो चंद दिन बेहतरीन थे

मय की खुमारी में या

जैसे नींद में कोई चलता है

बेसुध हो

जैसे हवा में कोई उड़ता है

बिना पंख लगाए

शहर को तुम्हारी नज़र से

देखा तो कुछ अलग लगा

जो अजनबी लगता था

वो दोस्त लगा 

ज़िन्दगी को नए तरीके से देखना

सीखा तो लगा सब नया सा

फिर एक दिन सब बदल गया

तुम चले गए, कभी न लौटने को

कोई वादा न था हमारे बीच

तो शिकायत भी नहीं है

दिमाग समझ गया पर

लेकिन दिल को समझने में

सालों लग जाएं

या शायद कभी समझे ही न

जब तक जिंदा हूँ

कैसे यकीन करूँ

तेरे चले जाने का !

 - इरा टाक

Thursday 8 April 2021

सोने से पहले जाग जाना - इरा टाक

सुलगते सहते रहो

बचाते हुए खोखला मान

झूठी हंसी होठों पर चिपका

आंखों का सूनापन 

काले चश्मे से ढके हुए

पर इससे पहले कि

कुचल दिया जाए

तुम्हारा स्वाभिमान

स्वप्न परतंत्र हों जाएं

आत्मा मृत हो, जीवित देह

को ढोती रहे

सुप्त ज्वालामुखी से जाग्रत

हो जाओ


बहा दो खदकता लावा

वरना इसकी ऊष्मा

तुमको नष्ट कर देगी।

- इरा टाक ©

#Poetry #Live #SelfRespect #EraTak

Tuesday 1 December 2020

लाइव पुराण - inforanjan.com पर प्रकाशित

चेतावनी – कमज़ोर दिल वाले इस आलेख को न पढ़ें क्योंकि गंभीर रूप से आहत होने का खतरा है. अभी तक भारत में कोई बीमा कम्पनी इस खतरे का कोई बीमा नहीं करती! ये व्यंग्य लेख सत्य घटनाओं से प्रेरित है, लेखक ने अपने को जान- माल के खतरे से बचाने के लिए पात्रों के नाम, पहचान और स्थान गुप्त रखा है.

 

 

कोरोना मैया की किरपा से लाइव को बहुत हाइप मिला. Facebook Live, Instagram Live,You tube live, ऑनलाइन क्लास, वेबिनार के नाम पर अत्याचार पिछले कई महीनों से हो रहा है. और इतना हो रहा है कि लाइव सिंड्रोम नाम की नयी बीमारी भी आ गयी. कुछ घनघोर फेसबुकिया- intragram सेलिब्रिटीज और पगलाए You-tubers लाइक, शेयर, सब्सक्राइब नींद में भी बड़बड़ाने लगे हैं. वो तो मोदी जी की किरपा से tiktok ban हुई गवा वर्ना ये tiktokiye तो lockdown स्टार्ट होते ही बौरा गये थे... आपको हम अन्दर की बात बताएं तो कुछ दिनों के लिए बौरा तो हम भी गये थे.

लाइव का धंधा सबसे ज्यादा फेसबुक पर चमका क्योंकि उधर दोस्त मान कर लोग जल्दी कनेक्ट हो जाते हैं...जे मान लो जैसे माता के जागरण में भक्तों के आने पर कोई रोक नहीं होती !

खैर अब समस्या ये कि लाइव न आ पाने वाले लाइव वालों में खोट निकाल रहे हैं ...पर तीसरे- चौथे दिन बिना किसी माफीनामे के खुद लाइव आ रहे हैं. एक दिन हद ही भय गयी... खुद को वरिष्ठ कवि कहने वाले एक सज्जन ने 250 शब्दों की कविता केवल लाइव आने वालों को गरियाते हुए लिख दी थी... और उस पर 40- 50 लोगों ने कमेंट चेप कर समर्थन भी किया था पर जे का .. ठीक साढ़े सात घंटे बाद ही वो नया कुरता पहिने लाइव कर रहे थे. पीछे उनकी किताबों भरी अलमारी नज़र आ रही थी जिसके बारे में वो बड़े गर्व से सबको बता रहे थे. हर किसी का नाम ले ले कर दुआ सलाम कर रहे थे. ये देख कर उनकी वरिष्ठता और कविता की गंभीरता से हमारा विश्वास उठ गया.

पर हम तो लाइव के शुरू से समर्थन में ठहरे. हमारा तो उसूल है... लाइव कोई देखे न देखे करना है तो करना है. कोई हज़ार लिंक भेजे- नहीं देखना तो नहीं देखना है. पर इस बात पर हाहाकार करते हुए खून का पानी नहीं करना.

भारत के संविधान में अनुच्छेद उन्नीस में... अरे फिर गलत समझ गये आप १९ छेद नहीं ... अनुच्छेद.. मल्ल्ब... आर्टिकल 19 में फ्रीडम ऑफ़ स्पीच यानी के बोलने की आज़ादी मिली है, मिली है कि नहीं मित्रों?

फिर काहे लाइव आने वालों को कोस रहे हैं और हैरत की बात ये कि खुद लाइव आने वाले भी लाइव आने वालों को कोस रहे...मल्लब कि सास की तरह बहु में खोट निकालनी है.

किसी को दिक्कत कि इसका कद नहीं है, लाइव आने का, किसी को दिक्कत ये कि इसने सबके नाम लिए पर मेरा नाम जानबूझ के इग्नोर मार दिया

किसी को ये कि हमको अमुक प्रकाशन से बुलावा नहीं आया जबकि हमसे कम काबिल को आ गया .. हमारा गाना लाइव अमुक प्लेटफार्म से नहीं आ पाया.. ऐसी हजारों शिकायतें... वो क्या है न ये कवि, कलाकार, लेखक, गायक मल्ल्ब क्रिएटिव प्रजाति के लोग बहुत ही ज्यादा भावुक किस्म के होते हैं. बात- बात पर इनका दिल दुःख जाता है ...बात मानसम्मान पर आ जाती है.

लाइव पुराण


ये लाइव लोगों को अलाइव नहीं रहने दे रहा है. बैचैन किये दे रहा है. लॉक डाउन में भी तैयार होना पड़ता है. रूम में बिखरे पड़े सामान को सेट करके लाइव लायक कोना arrange करना होता है. घर के सभी प्राणियों को घुट्टी पिला कर चुप कराया जाता है.

एक बार तो एक लाइव करा रही स्वघोषित खबरदार खबर कंपनी का ऑफर हमाये पास भी आया.. बोले दस मिनट के लाइव में तीन लोग कहानी सुनायेंगे... मल्लब कि तीनों के हिस्से तीन मिनट तेंतीस सेकंड आयेंगे, हमने तुरंत गणित लगा के गरना कर ली... तो उन्होंने कहा कि चार मिनट का समय तो संचालक का होगा...अब बचे छह मिनट उसको तीन में बांटों तो हुए दो- दो मिनट... तो भैया तुरंत हमारा ईगो हर्ट हो गया ! हम दो मिनट में कहानी सुनायेंगे ? इतनी देर तो हमको दुआ- सलाम करने में लग जाती है और दूसरी बात कि इन्नी छोटी तो हम कविता भी नहीं लिख पाते...कहानी तो दूर की बात है. इससे अच्छा हम अपने पेज से एक घंटे का लाइव न कर लें ! वो ज्यादा मान- मनोव्वल करते हुए आधे घंटे पर आ गये पर हमने भी साफ़ बोल दिया – न का मल्ल्ब न !

खैर एक मामला तो ऐसा भी हमारी जानकारी में आया जिसमें लाइव में रोज़ नयी साड़ी पहनने के चक्कर में एक नई - नई कहानीकार मैडम पड़ोस की अपनी सहेलियों से साड़ी मांग लातीं और इस चक्कर में आ गयी साड़ी में लिपट कर कोरोना मैया....फिर कुछ दिनों बाद मैडम अस्पताल से गाउन में लाइव करती नज़र आई जिसमें उन्होंने बताया कि उन्होंने कोरोना के अनुभवों पर अपना पहला उपन्यास तैयार कर लिया है.

 कोई मैडम किचन से लाइव कर रहीं तो कोई महाशय बड़ी दाढ़ी बर्तन धोते हुए गाना या कविता अलाप रहे हैं. और लाइव देख रहे गिने चुने श्रोता very nice भाई साहब, भाभी जी किधर हैं जो आप बर्तन घिस रहे, वाह जी बहुत खूब... आप सच्चे फेमिनिस्ट हैं आदि- आदि.

और तो और एक महिला लाइव करते करते भावुक हो गयीं क्योंकि उनके पालतू कुत्ते को डिप्रेशन हो गया था... नहीं नहीं आप गलत समझ रहे वो कुत्ते को डिप्रेशन से दुखी नहीं थी .. असल में डिप्रेस कुत्ते ने पूँछ हिलाते हुए एक कीमती पॉट गिरा दिया था. उस पॉट के टूटने का गम उनको पिछले महीने हुए सातवें ब्रेकअप से कहीं ज्यादा था. तो मित्रों भांति भांति के लोग और भांति भांति के लाइव.

अब एक वर्ग आता है जो जिद पकडे बइठा है कि चाहे कछु हुई जाए पर लाइव नहीं आना है, खाली बैठे- बैठे लाइव आने वालों को गरियाना है बस... अरे कोरोना मैया ने जे गोल्डन चांस दिया है पर.... नहीं ..कौनो कद्र ही नहीं. इतिहास में नाम दर्ज करने की जिद है- "हम कोरोना काल में अलाइव रहते हुए भी लाइव नहीं आये... उसूल हैं हमारे... इधर तो हर उठाईगिरा, गिरता पड़ता लाइव आ रहा ..."

कोई थोडा विनम्र होता है तो कहता है कि सुनने वाला भी तो चाहिए. ऐसे में ये लोग सारे लाइव समाज का बोझ अपने कन्धों पर उठाए नज़र आते हैं.

एक महाशय जो घर से कभी पचास किलोमीटर भी दूर नहीं गये थे वर्ल्ड टूर की टिप देते हुए अपनी ट्रेवल agency पर  कोरोना डिस्काउंट देने की बात कर रहे थे. इसी तरह एक महाशय जो तीन ब्रेकअप के बाद Lockdown में थोड़े फ्री थे, अपनी नयी किताब “How to live a happy married” के बारे में बताते हुए उसको ऑनलाइन लिंक देते हुए खरीदने की गुजारिश करते हुए नज़र आये.

जितना उत्पात ये कोरोना मचाय रहा. उससे ज्यादा ये ऑनलाइन, लाइव वाली दुनिया में चल रहा. लोग कविताओं पर कवितायेँ लिख रहे, एक पुरस्कार प्राप्त सेलेब्रिटी कवि ने तो गुस्से में यहाँ तक कह दिया कि कोरोनाकाल में मच्छरों से ज्यादा कवि पैदा हुए हैं.... पर हम उनकी इस बात से कतई इत्तेफ़ाक नहीं रखते. पति को पत्नी नहीं बोलने देती, सास, बहु का और बहु, सास का जीना मुश्किल किये है... लड़के लड़कियां डेट पर नहीं जा पा रहे हैं. पहले तो कॉलेज का बहाना कर के निकल जाते थे... बच्चे न स्कूल जा रहे हैं न खेलने... घर – घर नहीं प्रेशर कुकर हो गये हैं तो ऐसे में लोग कहीं तो अपनी भड़ास निकालेंगे.

लोग डिजिटल किताबें छाप रहे हैं फिर लिंक पर लिंक भेज खरीदने का दवाब बना रहे हैं. कुकुरमुत्तों की तरह कविताएँ, कहानियां, नावेल, ऑडियो सुनवाने वाली साइट्स आ गयी हैं. पॉडकास्ट पॉपकॉर्न की तरह उछल रहे.. लोग पकौड़े समझ कर तल रहे. सुनो, देखो का शोर चहुँ ओर..कोई कैसे हो जाये बोर...

अरे- अरे ये क्या हम भी कविता में बात करने लगे. उफ्फ्फ ..इसमें दोष हमारा है भी नहीं ये जो हवा है उसमें पोयम वायरस भी फैला हुआ है, जो मास्क लगाने के बावजूद संक्रमित कर देता है.

कोई ऑनलाइन रंग रहा, कोई भाषा सीख रहा, कोई कुकिंग, योग से लेकर जुम्बा नाच रहा हर बंदा. कुकिंग के वीडियो देख- देख कर कोई आइटम ऐसे नहीं होगा जो पकाया न हो, अब फिटनेस के विडियो खोज ख़ोज कर जलेबी, घी, पनीर आदि की कृपा से जमी चर्बी को पिघलाने की असफल कोशिशें की जा रही है.

बच्चों की ऑनलाइन क्लास चल रही हैं पर वो चोरी छुपे गेम खेलने और अकडम- बकडम देखने में लगे रहते हैं. पेरेंट्स और स्कूल मैनेजमेंट का फीस को लेकर रस्साकसी टाइप संघर्ष चल रहा है. हर तरफ़ बस ये समझिये कि ज्ञान की आंधी चल रही है. अब जो है सो है इस युग से टेक्नोलॉजी को अलग नहीं कर सकते है. तो मित्रों लाइव बने रहिये, वीडियो बनाइये, ज्ञान बांटिये, पंचायत कीजिये, बोलिए- बतियाइए... आउर का ! बस आनंद कीजिये.

 

-इरा टाक ©

 

 


Sunday 11 October 2020

दोस्ती की पवित्र किताब का पन्ना - Era Tak ©

जो सच्चा दोस्त होगा

वो दिल में तो रहेगा, सिर नहीं चढ़ेगा

वो दूर होगा लेकिन मुसीबत में साथ नज़र आएगा

वो दोस्त के बढ़ते कद से भयभीत नहीं होगा

बल्कि उसके लिए लिहाज़ और प्रेम बनाये रखेगा

वो दूसरों के सामने गलत नहीं कहेगा

भले ही कुछ शिकायतें हों

वो दूसरे से तुलना करके नीचा नहीं दिखाएगा

वो समझेगा ख़ामोशी और अपने शब्द मीठे रखेगा

वो सुनेगा केवल अपनी नहीं कहेगा

वो समझायेगा, थोपेगा नहीं

वो महफिल में शामिल होगा, दुआ में याद करेगा

वो बांधेगा नहीं, फिर भी बीच होंगें रेशमी धागे 

दोस्त कितने भी आम हों, वो ख़ास महसूस करवायेगा

वो मतलब निकलते ही, साथ नहीं छोड़ेगावो मात्र प्रेम चाहेगा और प्रेम देगा

और ऐसे दोस्त, सिर्फ़ नसीब वाले पाते हैं।

- इरा टाक ©


Friday 9 October 2020

धापी का फेमीनीज़म


आज की हमारी गेस्ट राइटर हैं, श्रीमती धा पी देवी, आशा है उनको आप सब का स्नेह मिलेगा....

धापी देवी का परिचय 

धापी देवी एक दबंग ग्रामीण महिला हैं. लिखने के अलावा वो अचार का व्यवसाय और खेती करती हैं.यू पी में रहती हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से पूरी दुनिया से जुडी हुई हैं.उनके बेबाक लेखन के लिए उनको पसंद किया जाता है.

जय राम जी की मित्रो 

हम हैं धापी देवी- अब आप पूछेंगे धापी का मतबल तो हम बताय दे रये की धापी का मतबल है– धापना यानी के भर जाना, पक जाना, उब जाना आउर इंग्लिस में बोले तो Fed Up हो जाना

अभी कछु दिन ही हुए हमको सोसल मीडिया ज्वाइन किये पर किस्मत देखो, हमको रेटिंग आफर आने लगे तो मित्रो जे है हमारा पहिला रेटअप..पढो, समझो, पसंद आये या न आये सेयर ज़ुरूरे करना...वो क्या है न हमारा खुस रहना बहुते ज़ुरूरी है

जब हम सोसल मीडिया ज्वाइन किये तो हमने पहिला बर्ड सुना “फेमीनीज़म”... हम तुरंत गूगल किये तो मालूम पड़ी कि ईका मतबल आऊरतन को बरबबर का अधिकार दिलाना आउर ऊ अधिकार की रकसा करते हुए बनाये रखना

हम रहे सूबेदार की बिटिया, देस में जगहे- जगहे घूमे जिस कारन हमाई भासा खिचरी हो गयी पर दिमाग खुल गओ हम गाँव के ज़ुरूर हैं पर हमाय जेनल नालेज बहुते गजब है, जगह- जगह के लोग-लुगाई देखे, उनके तेवर देखे, रीति रिवाज देखे आउर देखे कि आऊरतन को कईसे पीछे- पीछे किये रहे जे आदमी लोग

 हमाय बापू तो बहुते खुले विचारन के रहे पर हमाई अम्मा पुराने विचारो की रही, वो जब कौनू भेदभाव करती तो हम, हमाय भाई की कुटाई कर देते। हमको हमेसा से बराबरी का हक चाहिए था, लडकी होने का मतबल जे नहीं की हम सबई से डरत रयें। अइसे हमाई अम्मा आउर भाई धीरे- धीरे लेन में आ गये, ऊ समझ गये कि धापी को कंटरोल करना जईसे सूरज को घरे में बंद करना, जईसे नदी को मटके में भरने की कोसिस करना, जईसे से रेत को मुट्ठी में धरने की कोसिस करनागाम में टेक्टर- बुलेट चलाये रहे, हल जोते रहे, बिजली, पानी की फीटिंग का काम भी हम जाने रहे गाम में कोई कछु बोल नहीं सकता था हमको क्यूंकि हम बात बात पर लट्ठ निकाल लेते थे इस्कूल जाते बख्त अगर कोऊ लड़का लोग पीछा करके गन्दी बात बोले तो हम मार- मार के ऊका भुरता बनाये देते आउर सेलफ डीपेनडनत तो हम सादी से पहिले से ही हो गये थे हमाए यूपी में आम के बाग़ रहे तो हम अपना बिजनेस सुरु किए अचार का – धापी अचार, नाम ज़ुरूर धापी अचार है पर कोई एक बार खा ले तो कभी नहीं धापता आर्डर पर आर्डर और देखते ही देखते सहर से डिमांड आने लगी वो का है न हम बचपन से ही जुगाडू रहे

बाद में हमाई सादी हुई संकर से.... लब मेरीज... हुआ जू कि हम अचार के लए अमिया तोड़ने पेड़ पर चढ़े हुए थे आउर संकर वही से गुज़र रहे थे, हमने आमिया फेकी और जिनके खोपडा में लग गयी, जे बुलेट समेत धम्म से गिर गये अरी मैया! हम खट से उतरे और जिनको उठाया, थोड़ी कोहनी- उहनी छिल गयी थी हमको बहुते गिलट फील हो रहा था- हमने ‘सारी’ कही तो बोले-

“मेडम गलती हमाई है, हमको पेड़ के नीचे से नहीं जाना चाहिए था..आप तो अपना काम कर रई थीं”

बस उसी पल हम समझ गए जे ही हमारा दूल्हा बन सकत है, जो हमाई गलती को भी अपनी बतलाये। आउर जे तो हमपे फिदा होई चुके थे, गिरने के अगले ही दिन उसी पेड़ के नीचे आकर परपोज किए। दुई- चार टेसट आउर लेने के बाद हमने भी संकर को हाँ कह दी

हम बहुते खुस थे की एक आउर घर मिल रहा हमको, पर घर नहीं जे तो पिन्जरा था...पिन्जरा ! सादी के बाद हमको दबाये की बहुते कोसिस हुई धापी ऐसा कर, ऐसे रह, जे मति कर, जे मति कर, जे तुमाय मायका नहीं इहा के अलग तरीका है रहबे के। 

हमाये इमोसन जाईसे कोनो वल्यू नहीं रखते बहुते दुःख की बात है कि हम औरतन को हमेसा दबना परता है ... अपने इमोसन सेड में रखने पड़ते है  

हम सूट पहिने तो सास बोलीं, साडी पहिनो, हम साडी पहिने तो सास बोलीं कि लंहगा पहिनो, फिर बोलीं कि पति को नाम से मत बुलावो, सुबह जल्दी उठो और सबके सोने के बाद सोवोनन्द बोली- “भाभी तुम जे हर बख्त किताबें क्यों पढ़ती हो? साम को आउरतन के लहसन छीलते हुए बईठो, बतिआवो।“ 

हम अपसेट हुई गए, हमने भी बोल दिया- कौन सी किताब में लिखा है की सादी के बाद किताब नहीं पढ़ सकते? आउर हम लाइफ में बोलने- बतियाबे नही काम करने आए हैं... तुम भी कछु पढ़- लिख लेयो जिनगी में काम आएगा।”



तो वो चुप्प क्यूंकि ऊको तो अक्षर ज्ञान ही नहीं... आउर हमाई लाजीकल बात का ऊके पास कौनो जवाब नहीं था हम जानत रहे की आउरत ही आउरत की दुसमन है और वो ही आउरतन को आगे बढ़ने से रोके रही

 पानी सर से ऊपर निकल गया आउर हम धाप गये.. वैसे ही बचपन से हमाई सहनशक्ति ज्यादा नहीं है फिर एक हमने सीधे जीन्स पहिन ली आउर सुबहे- सुबहे आँगन में सबको बुलाया

  हमने साफ़ बोल दिया- हम जे जिनगी नहीं जी सकते, जिसमे हमको कईसे उठाना, कईसे बैठना, कईसे और कितना हसना, कईसे कपडे और चूड़ी पहिनना बताया जाए हमने काहे नहीं बुलाएगे इनको नाम से, जब जे हमको धापू कहिते तो हम भी इनको संकर कहेगे क्यों औरतन अपनी मर्जी के कपडे नहीं पहन सकती? हम अपने डीरीम और इमोसन से अब कौनो समझोता नही करेंगे... जिसको दिक्कत हो वो अडजसट करे तुम सब बतावो, सोना कबहू पीतल बन सके है? तुम लोग तो अच्छे खासे हीरे को कोयला बनाये दे रए

हम जैसे है, वैसे स्वीकार कल लेयो वरना जय राम जी की

और जे बात सबई जानत हैं के धापी ने एक बार जो कह दी सो कह दी... फायनल

सब चुप्प... सबको सांप सूघ गया.

हमाये हसबेड यानी संकर एकदम भोले है, भगवान् भोले संकर जईसे बहुत sapportive... बोले धापू प्यार से ये हमको धापू बोलते है... धापू तू टेंसन मत ले..जो करना है कर बस खुस रह, क्यूंकि तेरी खुसी में मेरी खुसी एकदम सोलमेट वाली फीलिंग हुई हमको हमको अपनी सरतो पर ही जीना पसंद है ..खाना बनाते- बनाते हम खा लेते, काहे काऊ के इंतज़ार में बईठे? आऊरत के हेलथ का धयान उसे खुद रखना होगा के नहीं? आऊरत खुदई से प्रेम नहीं करती है आउर सबन फिकर में लगी रहती है जे बतावो, अगर तुम खुदई की कदर नहीं करोगी तो दुसरा तुमाई कदर काहे करेगे?

सब सन्ति से चल रा था कि
एक दिन सुब्बे - सुब्बे हमाय "ये" यानी संकर थोड़ी कड़क आवाज में हमसे बोले
"धापी तुमाय नखरे बहूते भारी पड़ रये, अब उठाए न जा रये"
हम तूरंत समझ गए कि जिनको घुट्टी पिलाई गई... वरना जे हमसे कबी कच्छू नहीं बोलत रहे
बस्स... हमाए मूड का बलब भक्कक से फ्यूज
हमने साफ कह दई-
"हमाय नखरे जु ही रहेंगे, तुम लोग अपना सटेमिना बढ़ावो। जब आदमी नखरे कर सकत तो आऊरत काहे नहीं कर सकत? उसका भी मन करता कोई उसकी मान मनुहार करे, प्रेम जतावे।"
अब जे चुप्प...
आउर इहा सोसल मीडिया पर आके हमको मालिम पड़ी की... जे तो फेमीनीज़म है

तो भैया हम तो बचपन से फेमीनीज़म कर रहे थे, आउर हमको पता भी नही चला भाइयो आज़ादी का हक जितना तुमको है उतना ही हम आऊरतन को भी है आउर जो आऊरत दूसरी आऊतन ने रोक- टोक करती हैं उनको शीसा दिखाबो... क्यूँकि जब तलक हम एक दूसरे को बहिन मान के सपोट नहीं करेगीं हमाई उननती कईसे होगी?

तो फेमीनीज़म करो, बराबरी का हक लेकर रहोजूरूरी नहीं धापने पर ही तुम कछु बोलो, कोऊ तुमको कछु फालतू बोले तो तूरंत ऊकी बोलती बंद कर देयो कब सादी करनी है, किससे करनी है, कब बालक पैदा करने है, नौकरी करनी या नहीं, सबई फैसला करन का अधिकार है तुमाय पास। आउर जो अपने अधिकार छोड़ देता उका इसवर ही मालिक है।

आसा है आपको हमाई बात समझ, आउर पसंद आई होगी तो अब अपना फरज निभाओ, लाइक करो, सेअर करो आउर अपने हक के लिए लड़ना सीखो वो क्या है न औरतन का खुस रहना समाज आउर देस के लिए बहुते ज़ुरूरी है

जय हिन्द 

-धापी देवी ©




Sunday 23 August 2020

मम्मा की लॉकडाउन डायरी - inforanjan.com पर प्रकाशित

13 मार्च को हम जयपुर से मुंबई पहुंचे थे। उस दिन मेरा जन्मदिन भी था। मेरे बेटे विराज और पति दुष्यंत ने मेरे लिए सरप्राइस प्लान किया था। शाम को हम लोग घूमने भी गए थे, हालांकि हमने मास्क लगाया हुआ था, पर बाकी लोग लापरवाही से ऐसे ही घूम रहे थे। कोरोना से बचाव के लिए जगह-जगह पोस्टर लगे थे लेकिन कोरोना को लेकर कोई सावधान, जागरूक नहीं था। फिर लॉक डाउन हो गया और हम तीनों मुंबई के मढ़ अाईलैंड में अपने घर में कैद हो गए।बेटा विराज मुंबई में अपनी छुट्टियां बिताने के इरादे से आया था, पर यहां वो कैद हो गया था।

काम के सिलसिले में मुझे और मेरे पति को अक्सर ट्रैवल करना पड़ता है तो यह पहला मौका है जब मार्च से हम लगातार साथ हैं। यह बड़ा मुश्किल समय है खासकर बच्चों के लिए क्योंकि वह स्कूल नहीं जा पा रहे हैं, अपने दोस्तों के साथ नहीं खेल पा रहे हैं और एक आम जिंदगी नहीं जी पा रहे हैं।
ऐसे में मां होने के नाते मेरी जिम्मेदारी बहुत बढ़ गई। मेरी हर वक्त एक ही कोशिश रहती कि विराज जोकि 12 साल का है किसी भी तरह की बोरियत, तनाव, अवसाद या अकेलेपन का शिकार ना हो। मैंने उसको इस लॉकडाउन में बहुत सारी चीजें पकाना यानी कुकिंग सिखाई। घर के अन्य कामों में भी उसने पूरा सपोर्ट किया। सैनिटाइजेशन की जिम्मेदारी उसके नाजुक कंधों पर ही है। मेरा बेटा शुरू से ही अपनी उम्र से ज्यादा समझदार और संवेदनशील है। उसको डांटने मारने की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई क्योंकि वह इशारे से ही बात समझ जाता है। पढ़ाने के साथ-साथ उसके साथ लूडो, ताश, कैरम, चैस, फुटबॉल, बैडमिंटन और ना जाने क्या-क्या खेल खेले। कई बार मैं उसका छोटा भाई "आदी" जोकि एक वर्चुअल भाई है, बन जाती हूं। हम पूरे दिन मजे करते हैं, खूब हंसते हैं।

  हम लोग 3 मई को मुंबई से जयपुर लौट आए। घर पर 14 दिन हमें होम क्वारांटीन किया गया। इस दौरान हमने अपनी वह सारी इच्छाएं पूरी करी जो पिछले कई सालों से वक्त ना मिल पाने के कारण अधूरी पड़ी हुई थी।हमने लॉकडाउन में गार्डनिंग पर फोकस किया और छत पर टैरेस गार्डन बनाया जहां शाम को हम सब मिलकर बैठते हैं - म्यूजिक सुनते हैं, बातें करते हैं। रात में सोने से पहले हम तीनों मिलकर कहानियां बनाते हैं और एक दूसरे को सुनाते हैं।

लॉक डाउन के दौरान मैंने विराज को रोज एक फिल्म देखने की इजाजत दी ताकि वह वर्ल्ड सिनेमा को समझ सके और साथ ही साथ रोज एक किताब का कुछ हिस्सा पढ़ने, हैंड राइटिंग सुधारने और 25 तक के पहाड़े याद करने की आदत डलवाई।
  नई-नई क्रिएटिव चीजें बनाने पर ध्यान दिया। Tribal पेंटिंग की, क्राफ्ट के आइटम बनाए, पुराने सामान से डेकोरेटिव आईटम्स बनाए। मैं विराज के साथ मॉर्निंग वॉक पर भी जाती हूं तब उसे पेड़ पौधे और पक्षियों के बारे में जानकारी देती हूं ताकि उसकी जनरल नॉलेज बढ़े, वो कुदरत से वाक़िफ हो सके। विराज को फोटोग्राफी का शौक है तो मैंने उसे कैमरे की बारीकियां समझाई और दिन में एक से डेढ़ घंटा वह कैमरे की आंख से देखते हुए अच्छे-अच्छे फोटोग्राफ्स खींचता है।

लॉक डाउन में ही उसका जन्मदिन पड़ा, जिसके लिए हमने घर पर केक बनाया और हर मायने में उसके लिए ये दिन ख़ास बनाने की कोशिश की।
इस तरह लॉक डाउन का यह समय हमने पूरी तरह क्रिएटिव एक्टिविटी में बिताया। मैंने इस दौरान अपना लिखना बहुत कम किया क्योंकि मेरा सारा फोकस अपने बच्चों पर है जी हां विराज के अलावा मेरे दो बच्चे और हैं एक मेरे पिताजी जो अब ओल्ड है और डायबिटीज होने के बावजूद उन्हें हर समय मीठा चाहिए, उन से जूझना और मांगें पूरी करना भी बड़ा मुश्किल काम है। दूसरा बच्चा पिकोलो यानी हमारा पालतू डॉग। यह एक Cane Corso है, जो काफ़ी बड़ा और बहुत ही समझदार है। इसके साथ पूरे समय मस्ती करना, खेलना कूदना, बातें करना तो लॉकडाउन में बहुत सारा समय होते हुए भी मैंने अपने काम को समय नहीं दिया और इस समय को अपने बच्चों की देखभाल में लगा दिया।

इस समय हमारे घर पर क्रिसमस ट्री एक बुलबुल के जोड़े ने घोंसला बनाया और तीन अंडे दिए, जिनमें अब बच्चे निकल आए हैं।
इस तरह मेरा परिवार मिलजुल कर सकारात्मक रहते हुए एक अच्छा समय बिता रहा है और ये समय जल्द गुज़र जाएगा ऐसी उम्मीद रखे है।
ये कोरोना काल हम सबकी जिंदगी का एक अजीब और मुश्किल समय है लेकिन मुझे लगता है कि अगर सब मिलकर प्यार से पॉजिटिव रहते हुए इस वक्त का सामना करें तो काफी हद तक तनाव कम होगा और यह वक्त भी बहुत जल्दी गुजर जाएगा।
लॉकडाउन खत्म होने के बाद जब सब कुछ नॉर्मल होगा, विराज स्कूल जाने लगेगा, तब मैं अपने काम पर ज्यादा फोकस कर पाऊंगी और अभी मैं उसके साथ यह कीमती समय इंजॉय कर रही हूं क्योंकि पहले हम कभी इतना वक्त साथ नहीं रहे और शायद सब सामान्य होने पर इतना वक़्त निकाल पाना मुश्किल होगा।
इस वक़्त को मैंने पूरी तरह विराज की मम्मा, दोस्त, टीचर और भाई बन कर जिया है।
- इरा टाक
राइटर, फिल्ममेकर 

Saturday 27 June 2020

मृत्यु एक नयी यात्रा

मृत्यु एक नयी यात्रा है, मैं मृत्यु की खबर पर शांत हो जाती हूँ पर दुखी नहीं होती. ज़िन्दगी में इतने अंधेरों से गुज़री हूँ कि सुख- दुःख का बोध समाप्त हो गया है. अच्छे से पता है कि हर चीज़ नश्वर है इसलिए किसी का मोह इतना नहीं होता कि उसके छूटने का दुःख हो. संवेदनाएं ज़रूर होती है, कई बार मन आहत भी होता है पर मिथ्या आडम्बर नहीं कर पाती. मन को मुक्त करने का निरंतर अभ्यास करती हूँ.

मेरी माँ अल्जाइमर रोग के चलते साढ़े चार साल बिस्तर पर रहीं, उनकी सेवा करते हुए मैंने मृत्यु को इतने करीब से देखा कि उसका भय ही खत्म हो गया. उनको नहलाना, डाईपर बदलना, उनको कुछ भान नहीं रहा था वो मल को हाथ में ले लेती थीं फिर बिखरे हुए और नाखूनों में भरे मल को साफ़ करना, शरीर पर हो रहे घाव साफ़ करना, पट्टी करना  और उनको खिलाना -पिलाना.
थकान, गुस्सा, वितृष्णा, दया, खीज, अवसाद जैसे कई- कई भाव मुझे घेरे रहते थे. सिर्फ मेरा काम मेरे लिए एक सुकून था, जलते हुए रेगिस्तान में छाया की तरह !
उनको मेरे सिवा कुछ याद नहीं रहा था. मृत्यु से ठीक पहले जब वो मूर्छित थीं तब भी मेरी आवाज़ पर उनके होंठ हिलते थे. फिर उनकी मृत्यु (2015) पर मैं खामोश रही... बिलख कर नहीं रोई. कई महीने बाद मुझे रोना आया. लेकिन मैं हलकी हो गयी थी, वो साढ़े चार साल मेरे जीवन का विकटतम समय था. मैं दो- चार दिन से ज्यादा उनको छोड़ कहीं नहीं जाती थी, मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से तोड़ देने वाला वक़्त.
पता नहीं ये सहज है या नहीं पर अब मैं किसी चीज़ से प्रभावित नहीं होती चाहे सुख हो या दुःख. मुझे कोई चिंता नहीं होती , कोई डर नहीं सताता, हमेशा अपनी कमजोरियों पर जीत हासिल करने का प्रयास करते हुए मुझे हमेशा उजाले की उम्मीद रहती है.
     किसी के लिए अगर कोई भाव मरा, तो वो दोबारा जीवित नहीं होता. हर किसी को अपने हिस्से का अँधेरा झेलना है और अपने हिस्से की रोशनी हासिल करनी है. क्या वाकई कोई आपके दुःख में दुखी होता है या आपकी ख़ुशी में सच में खुश होता है?
ये जान पाना मुश्किल है और अगर आप जान जाएँ तो पीड़ा भी होती है.
इसलिए मोह न रखते हुए उम्मीद बने रहना सहज है, सुखद है. जो आया है वो एक आयु लेकर आया है इस सच को स्वीकार कर लेने से दुःख स्वतः ही क्षीण हो जाते हैं.
- इरा टाक 

Even A Child Knows -A film by Era Tak