Tuesday 11 July 2017

स्त्री को देह से इतर कौन समझता है, सदियां लगेंगी ! ... इरा टाक

लम्बी दूरी तय करने में सदियाँ लगती हैं ... 
पेंटिंग इरा टाक 

 
    बचपन में जब मेरे माता पिता किसी तरह एक लड़का हो जाने की बात करते या लड़का गोद लेने की बात करते तो मन में ये बात पहली बार आई कि लड़का होना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। थोडा बड़े हो जाने पर खेलने, बाहर जाने पर पाबंदियां लगा दीं गयीं। स्कूल आते जाते लड़कों का पीछा करना, किसी से बात कर लो तो उलूलजलूल किस्से बन जाना। आज भी लगता है काश मैं भी खुली हवा में सांस ले पाती, एक गमले में लगे पौधे की तरह न बढ़ कर किसी जंगल में लगे पौधे की तरह बढ़ कर पेड़ बन पाती !
     घर में एकलौती होने की वजह से जो उम्मीदें लड़कों से होती हैं वो मुझ से की जातीं, जैसे बैंक के काम करना, बिजली की छोटी मोटी  रिपेयर, बाज़ार से सामान लाना जैसे काम। पर जब आज़ादी की बात आती तो तुम लड़की हो. सर झुका कर चला करो , ज्यादा हंसा मत करो , ज्यादा खेलो मत , लड़कों से बात मत करो, दोस्ती मत करो. एक ही तरह के इंसान से दोहरी ज़िन्दगी की उम्मीद !
हर चीज़ को सीखने की ललक और हार न मानने की जिद ने मुझे जिंदा रखा।
मुझे जेम्स स्टीफन का एक कथन याद आता है- औरतें मर्दों से ज्यादा बुद्धिमती होती हैं, क्यूंकि समझती ज्यादा हैं और जानती कम हैं यहाँ सवाल ये उठता है कि क्या उसे जानने की पूरी आजादी मिलती है ?  क्या उसको उतनी खुली हवा में घूमने, सांस लेने का मौका मिलता है जितना कि एक पुरुष को? तो फिर समझना उसकी मजबूरी होगी ही उसके अलावा विकल्प ही क्या बचता है . जो पुरुष समझाना चाहें वो स्त्री समझे .
जो अपने हक़ को जान लेती है वो बुरी औरत होती है। जो दुनिया को अपनी आँखों से देखना चाहती है वो बुरी औरत होती है. जो अपनी ज़िन्दगी के फैसले अपने दम पर लेना चाहती है वो बुरी औरत होती है इस पुरुष प्रधान समाज की नज़रों में और उसे बुरा मानने में अन्य “अच्छी” स्त्रियाँ भी पीछे नहीं होतीं.
सपने इच्छाएं सब छोड़ त्याग की जीती जागती मूर्ति बनने पर मजबूर किया गया पर ऐसा त्याग कर महान बनने का ख्याल कभी पुरुषों के मन में क्यों नहीं आया?
इरा टाक 
आज भी कन्यादान की कुरीति चल रही है, कन्या कोई वस्तु है जिसे दान दिया जाये?  कन्या का दान न करना पड़े, खर्चा न हो इसके लिए हमारे समाज में कन्याओं की भ्रूण हत्या होने लगी पर इस कुरीति को बदलने का ख्याल किसी के मन में नहीं आया. जिसकी वजह से स्त्री को दोयम दर्जे के मानने के नियम हैं वो नियम बदलने का ख्याल किसी धर्माधिकारी को नहीं आया.   स्त्रियों में बहनापे की भारी कमी उनके पिछड़ेपन का मूल कारण है। अधिकांश सासों का ध्यान बहू की काबिलियत से ज्यादा उसके कपड़ों और रहन सहन पर रहता है। ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति और भी भयावह है। स्त्रियों का सुहाग चिन्ह धारण करना, पति का नाम अपने नाम के साथ लगा लेना एक तरह की मानसिक गुलामी ही तो है जो शायद सदियों से चलते हुए अब स्त्री के जीन्स ( गुणसूत्र ) में शामिल हो चुकी है.  अफ़सोस इस बात का है कि पढ़ी लिखी और सक्षम  स्त्रियाँ भी इस परंपरा को थोडा या ज्यादा... पर निभा ज़रूर रही हैं और अगर इसे प्रेम और समर्पण का कुतर्क दे कर सही ठहराया जाये तो इस तरह का प्रेम और समर्पण तो पुरुषों से भी अपेक्षित है ! केवल स्त्रियों पर ही शादीशुदा होने का बिल्ला क्यों चस्पा किया जाये? 
 

 कभी कभी खुद के स्त्री होने पर बड़ी खीज होती है. आज भी हर दूसरे दिन ऐसे लोगों से सामना हो जाता है , जो हमें देह से ज्यादा कुछ नहीं समझते। हमारा सारा टैलेंट धरा रह जाता है, हमारी एक मात्र योग्यता रह जाती है सुन्दर और जवान होना। कोई स्त्री के मन तक नहीं पहुंचना चाहता, सबकी लालसा उसकी देह तक होती है . जगजीत सिंह की ग़ज़ल याद आती है - जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था, लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है. 
एक लड़की होने के नाते कदम कदम पर आपको अपने सपनों में कटौती करने पर मजबूर किया जाता है, कभी परिवार कभी समाज का वास्ता दे कर. 
अक्सर स्त्रियाँ पति के या परिवार का सहयोग न मिलने का हवाला दे कर अपनी पढाई , नौकरी या कुछ अलग करने के सपने छोड़ देती हैं अपने सपनों को जिंदा रखने और उन्हें हकीकत बनाने का साहस तो खुद स्त्री को ही जुटाना होगा भले ही कोई उसका साथ दे या न दे! स्त्री एक मात्र देह नहीं एक मन भी है , जो सपने देखता है , जिसमें आरजू रहती है. वो भी एक इंसान है  जो किसी मकसद से इस धरती पर आई है , केवल बच्चे पैदा करने नहीं . ये उसे भी समझना होगा और पुरूषों को भी। जब स्त्री की पहचान उसके पिता, पति या काबिल औलाद के नाम से न हो कर खुद अपने नाम से होगी, तभी सही मायने में स्त्री पहले दर्जे की नागरिक होगी और इस सुख को पाने का हक और चेतना हर स्त्री में होनी चाहिए। 

मेरे हिस्से की आज़ादी और आसमान पाने के लिए मैं आख़िरी साँस तक संघर्ष करुँगी
इरा टाक




3 comments:

  1. मेरे हिस्से की आज़ादी और आसमान पाने के लिए मैं आख़िरी साँस तक संघर्ष करुँगी”.... बिलकुल सही , हर स्त्री को प्रेरणा देता आलेख ...वंदना बाजपेयी

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  2. दी बिल्कुल सही कहा आपने एक औरत को देह के इतर कोई समझ नहीं पाया

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