इरा टाक लेखक, फिल्मकार, चित्रकार हैं. वर्तमान में वो मुंबई में रह कर अपनी क्रिएटिव तलाश में लगी हुई हैं . ये ब्लॉग उनकी दुनिया की एक खिड़की भर है.
Monday, 24 July 2017
रेनकोट - नंदन में प्रकाशित बाल कहानी
शौर्य ने तीसरी क्लास में
एडमिशन लिया था. पुणे से मुंबई आना उसे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. वहां उसके कई
दोस्त थे. उसके पापा का हर तीसरे साल ट्रान्सफर हो जाता है, इसलिए अब वो मुंबई में
थे. गोरा चिट्टा गोल मटोल शौर्य आठ साल का हुआ था, उसकी मम्मी ने उसका बर्थडे
मनाया और आस पास के सभी बच्चों को बुलाया ताकि उसकी सबसे पहचान और दोस्ती हो सके.
केक काटा जा चुका था , सब बच्चे मस्ती कर रहे थे. तभी एक डरा सहमा सा सांवले रंग
का एक बच्चा हाथ में गिफ्ट का छोटा सा पैकेट लेकर आया. उसका नाम ध्रुव था. शौर्य
की मम्मी ने उसे बड़े प्यार से बुलाया और केक खाने को दिया.
शौर्य चोट की वजह से स्कूल नहीं जा पा रहा था. ध्रुव रोज स्कूल से लौटते ही उसे होमवर्क देने आता. आज वो भीगा हुआ आया और दरवाजे पर ही खड़ा रहा. “ध्रुव ! तुम रेन कोट में भीग कैसे गए ?”-शौर्य की मम्मी ने होमवर्क की फोटो खीचते हुए कहा
इरा टाक
Saturday, 15 July 2017
Tuesday, 11 July 2017
स्त्री को देह से इतर कौन समझता है, सदियां लगेंगी ! ... इरा टाक
लम्बी दूरी तय करने
में सदियाँ लगती हैं ...
बचपन में जब मेरे माता पिता किसी तरह एक लड़का हो जाने की बात करते या लड़का गोद लेने की बात करते तो मन में ये बात पहली बार आई कि लड़का होना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। थोडा बड़े हो जाने पर खेलने, बाहर जाने पर पाबंदियां लगा दीं गयीं। स्कूल आते जाते लड़कों का पीछा करना, किसी से बात कर लो तो उलूलजलूल किस्से बन जाना। आज भी लगता है काश मैं भी खुली हवा में सांस ले पाती, एक गमले में लगे पौधे की तरह न बढ़ कर किसी जंगल में लगे पौधे की तरह बढ़ कर पेड़ बन पाती !
पेंटिंग इरा टाक |
बचपन में जब मेरे माता पिता किसी तरह एक लड़का हो जाने की बात करते या लड़का गोद लेने की बात करते तो मन में ये बात पहली बार आई कि लड़का होना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। थोडा बड़े हो जाने पर खेलने, बाहर जाने पर पाबंदियां लगा दीं गयीं। स्कूल आते जाते लड़कों का पीछा करना, किसी से बात कर लो तो उलूलजलूल किस्से बन जाना। आज भी लगता है काश मैं भी खुली हवा में सांस ले पाती, एक गमले में लगे पौधे की तरह न बढ़ कर किसी जंगल में लगे पौधे की तरह बढ़ कर पेड़ बन पाती !
घर में एकलौती होने की वजह से जो उम्मीदें
लड़कों से होती हैं वो मुझ से की जातीं, जैसे बैंक के काम
करना, बिजली की छोटी मोटी रिपेयर, बाज़ार से सामान लाना जैसे काम। पर
जब आज़ादी की बात आती तो तुम लड़की हो. सर झुका कर चला करो , ज्यादा हंसा मत करो , ज्यादा
खेलो मत , लड़कों से बात मत करो, दोस्ती मत करो. एक ही तरह के इंसान से दोहरी ज़िन्दगी
की उम्मीद !
हर चीज़ को सीखने की
ललक और हार न मानने की जिद ने मुझे जिंदा रखा।
मुझे जेम्स स्टीफन का एक कथन याद आता है- “औरतें मर्दों से ज्यादा बुद्धिमती होती हैं, क्यूंकि समझती ज्यादा हैं और जानती कम हैं”। यहाँ सवाल ये उठता है कि क्या उसे जानने की पूरी आजादी मिलती है ? क्या उसको उतनी खुली हवा में घूमने, सांस लेने का मौका मिलता है जितना कि एक पुरुष को? तो फिर समझना उसकी मजबूरी होगी ही उसके अलावा विकल्प ही क्या बचता है . जो पुरुष समझाना चाहें वो स्त्री समझे .
मुझे जेम्स स्टीफन का एक कथन याद आता है- “औरतें मर्दों से ज्यादा बुद्धिमती होती हैं, क्यूंकि समझती ज्यादा हैं और जानती कम हैं”। यहाँ सवाल ये उठता है कि क्या उसे जानने की पूरी आजादी मिलती है ? क्या उसको उतनी खुली हवा में घूमने, सांस लेने का मौका मिलता है जितना कि एक पुरुष को? तो फिर समझना उसकी मजबूरी होगी ही उसके अलावा विकल्प ही क्या बचता है . जो पुरुष समझाना चाहें वो स्त्री समझे .
जो अपने हक़ को जान
लेती है वो बुरी औरत होती है। जो दुनिया को अपनी आँखों से देखना चाहती है वो बुरी
औरत होती है. जो अपनी ज़िन्दगी के फैसले अपने दम पर लेना चाहती है वो बुरी औरत होती
है इस पुरुष प्रधान समाज की नज़रों में और उसे बुरा मानने में अन्य “अच्छी”
स्त्रियाँ भी पीछे नहीं होतीं.
सपने इच्छाएं सब छोड़ त्याग की जीती जागती मूर्ति बनने पर मजबूर किया गया पर ऐसा त्याग कर महान बनने का ख्याल कभी पुरुषों के मन में क्यों नहीं आया?
सपने इच्छाएं सब छोड़ त्याग की जीती जागती मूर्ति बनने पर मजबूर किया गया पर ऐसा त्याग कर महान बनने का ख्याल कभी पुरुषों के मन में क्यों नहीं आया?
इरा टाक |
आज भी कन्यादान की
कुरीति चल रही है, कन्या कोई वस्तु है जिसे दान दिया जाये? कन्या का दान न करना पड़े, खर्चा न हो इसके
लिए हमारे समाज में कन्याओं की भ्रूण हत्या होने लगी पर इस कुरीति को बदलने का
ख्याल किसी के मन में नहीं आया. जिसकी वजह से स्त्री को दोयम दर्जे के मानने के नियम
हैं वो नियम बदलने का ख्याल किसी धर्माधिकारी को नहीं आया. स्त्रियों में बहनापे की भारी कमी उनके
पिछड़ेपन का मूल कारण है। अधिकांश सासों का ध्यान बहू की काबिलियत से ज्यादा उसके
कपड़ों और रहन सहन पर रहता है। ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति और भी भयावह है।
स्त्रियों का सुहाग चिन्ह धारण करना, पति का नाम अपने नाम
के साथ लगा लेना एक तरह की मानसिक गुलामी ही तो है जो शायद सदियों से चलते हुए अब
स्त्री के जीन्स ( गुणसूत्र ) में शामिल हो चुकी है. अफ़सोस इस बात का है कि पढ़ी लिखी और सक्षम स्त्रियाँ भी इस परंपरा को थोडा या ज्यादा... पर
निभा ज़रूर रही हैं । और अगर
इसे प्रेम और समर्पण का कुतर्क दे कर सही ठहराया जाये तो इस तरह का प्रेम और
समर्पण तो पुरुषों से भी अपेक्षित है ! केवल स्त्रियों पर ही शादीशुदा होने का
बिल्ला क्यों चस्पा किया जाये?
कभी कभी खुद के स्त्री होने पर बड़ी खीज होती है. आज भी हर दूसरे दिन ऐसे लोगों से सामना हो जाता है , जो हमें देह से ज्यादा कुछ नहीं समझते। हमारा सारा टैलेंट धरा रह जाता है, हमारी एक मात्र योग्यता रह जाती है सुन्दर और जवान होना। कोई स्त्री के मन तक नहीं पहुंचना चाहता, सबकी लालसा उसकी देह तक होती है . जगजीत सिंह की ग़ज़ल याद आती है - जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था, लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है”.
एक लड़की होने के नाते कदम कदम पर आपको अपने सपनों में कटौती करने पर मजबूर किया जाता है, कभी परिवार कभी समाज का वास्ता दे कर. अक्सर स्त्रियाँ पति के या परिवार का सहयोग न मिलने का हवाला दे कर अपनी पढाई , नौकरी या कुछ अलग करने के सपने छोड़ देती हैं। अपने सपनों को जिंदा रखने और उन्हें हकीकत बनाने का साहस तो खुद स्त्री को ही जुटाना होगा भले ही कोई उसका साथ दे या न दे! स्त्री एक मात्र देह नहीं एक मन भी है , जो सपने देखता है , जिसमें आरजू रहती है. वो भी एक इंसान है जो किसी मकसद से इस धरती पर आई है , केवल बच्चे पैदा करने नहीं . ये उसे भी समझना होगा और पुरूषों को भी। जब स्त्री की पहचान उसके पिता, पति या काबिल औलाद के नाम से न हो कर खुद अपने नाम से होगी, तभी सही मायने में स्त्री पहले दर्जे की नागरिक होगी और इस सुख को पाने का हक और चेतना हर स्त्री में होनी चाहिए।
“मेरे हिस्से की आज़ादी और आसमान पाने के लिए मैं आख़िरी साँस तक संघर्ष करुँगी”
कभी कभी खुद के स्त्री होने पर बड़ी खीज होती है. आज भी हर दूसरे दिन ऐसे लोगों से सामना हो जाता है , जो हमें देह से ज्यादा कुछ नहीं समझते। हमारा सारा टैलेंट धरा रह जाता है, हमारी एक मात्र योग्यता रह जाती है सुन्दर और जवान होना। कोई स्त्री के मन तक नहीं पहुंचना चाहता, सबकी लालसा उसकी देह तक होती है . जगजीत सिंह की ग़ज़ल याद आती है - जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था, लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है”.
एक लड़की होने के नाते कदम कदम पर आपको अपने सपनों में कटौती करने पर मजबूर किया जाता है, कभी परिवार कभी समाज का वास्ता दे कर. अक्सर स्त्रियाँ पति के या परिवार का सहयोग न मिलने का हवाला दे कर अपनी पढाई , नौकरी या कुछ अलग करने के सपने छोड़ देती हैं। अपने सपनों को जिंदा रखने और उन्हें हकीकत बनाने का साहस तो खुद स्त्री को ही जुटाना होगा भले ही कोई उसका साथ दे या न दे! स्त्री एक मात्र देह नहीं एक मन भी है , जो सपने देखता है , जिसमें आरजू रहती है. वो भी एक इंसान है जो किसी मकसद से इस धरती पर आई है , केवल बच्चे पैदा करने नहीं . ये उसे भी समझना होगा और पुरूषों को भी। जब स्त्री की पहचान उसके पिता, पति या काबिल औलाद के नाम से न हो कर खुद अपने नाम से होगी, तभी सही मायने में स्त्री पहले दर्जे की नागरिक होगी और इस सुख को पाने का हक और चेतना हर स्त्री में होनी चाहिए।
“मेरे हिस्से की आज़ादी और आसमान पाने के लिए मैं आख़िरी साँस तक संघर्ष करुँगी”
इरा टाक
Thursday, 6 July 2017
रिस्क @ इश्क - उपन्यास इरा टाक
https://www.juggernaut.in/books/8b893ae82d3643e194bfd6dedb96b19a
रिस्क @ इश्क इरा टाक का पहला नावेल है जो जुग्गरनौट बुक्स से
रिस्क @ इश्क इरा टाक का पहला नावेल है जो जुग्गरनौट बुक्स से
आया है. पूरा पढ़ने के लिए डाउनलोड करें.
सबसे परिचय लेने के बाद मार्टिन गला साफ करते हुए बोला, “एनीवे क्लास...कल सब दोबारा कॉन्फिडेंस से अपना इंट्रोडक्शन देंगे. दम होना चाहिए आपकी आवाज़ और पर्सनैलिटी में. घर जा कर कम से कम पंद्रह बार शीशे में देख कर ख़ुद को ख़ुद की पहचान दीजिएगा...अंडरस्टैंड?”
“यस सर !” सब पुरज़ोर आवाज़ में बोले.
“एक्टिंग का पहला रूल है...डोंट एक्ट,” मार्टिन ने अपने घुंघराले बालों में उंगलियां फंसाते हुए कहा.
डब्बू ने सामने लगे बोर्ड पर मार्कर से दर्ज़ किया
- “डोंट एक्ट.”
“मतलब सर? हम सब यहां एक्ट करना ही तो सीखने आए हैं?” रॉकी ने अपनी आवाज़ बुलंदी से उठाई.
बाकी सबने सहमति में सिर हिलाया. बाहर बारिश शुरू हो गई थी. मिट्टी की सोंधी खुशबू क्लास में भर गई. मार्टिन ने आंखें बंद कर सूंघने का अभिनय किया. एक मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गई.
“डोंट एक्ट, जस्ट फील एंड लिव द करैक्टर...समझे कुछ?”-मैक दो कदम आगे चल कर वापस दो कदम पीछे घूम गया.
“यस सर,” सब एक सुर में ज़ोर से बोले.
“एंड प्लीज़ डोंट कॉल मी सर...कॉल मी मार्टिन ऑर मैक...पुकारो मुझे मेरा नाम लेकर मुझे अपनी खबर मिलती है.”
“ओके मैक,” सब फिर से एक साथ बोल पड़े.
शाज़िया को मार्टिन को देखकर गुस्सा आ रहा था. बात-बात पर बच्चों की तरह यस सर-नो सर बोलना उसे बिलकुल पसंद नहीं था.
“कितनी ओवर एक्टिंग कर रहा है रियल लाइफ में भी और बोल रहा है- डोंट एक्ट,” उसने फुसफुसाते हुए बगल में बैठी लड़की से कहा.
Monday, 3 July 2017
इससे पहले कि मौत हमें पी जाये, चलिए ज़िन्दगी खुल के जी जाये !
ज़िन्दगी जीने के हज़ार फलसफे हैं. कितनी भी कोशिश कर लो ज़िन्दगी एक ढ़र्रे पर नहीं चल पाती, ये गाड़ी कई कई बार पटरी से उतर जाती है. कितनी भी तैयारी कर लो ज़िन्दगी नए सवाल के साथ परीक्षा लेती है. हर किसी के लिए एक अलग सिलेबस जो एग्जाम टाइम में ही पाता लग पाता है.
पर फिर भी अपार संभावनाएं हैं, इस ज़िन्दगी में , हम जितना चाहें हासिल कर सकते हैं. अक्सर लोग अतीत को याद करने में अपना वक़्त बिता देते हैं, कुछ भविष्य के चिंतन में लगे रहते हैं. अतीत की तरफ बार बार मुड़ कर देखने से या भविष्य की चिंता का बोझ सर पर लादे रहने से हमारी रफ़्तार कम हो जाती है. इसलिए वर्तमान में रहना, ज़िन्दगी जीने का सबसे सरल उपाय है. जब अँधेरा गहनतम हो तब निराश होने की बजाय उस वक़्त को याद करें, जब पहले इससे भी गहन अँधेरे से निकल आप रोशनी में आये थे, पैरों में गति आ जायेगी और रोशनी की तरफ फासला कम होता नज़र आएगा...! बस याद रखिए, " ये भी गुज़र जायेगा ". कैसा भी वक़्त हो गुज़र जाता है इसलिए सुख में होश न खोना और दुःख में हिम्मत ! जब सब खो जाता है तब भी अगर हिम्मत बची रहे तो वो सब वापस दिलाने की काबिलियत रखती है.
जीवन में एक लक्ष्य हो, अनुशासन हो और उस लक्ष्य के लिए किसी भी हद तक जाने का जुनून हो. अगर आप हमेशा ये जानने में इच्छुक रहेंगें कि दुनिया वाले आपके लिए क्या सोचते हैं तो यकीन मानिए अपने मन की शांति खो देंगे. काम करने क्षमता कम हो जाएगी, व्यस्त रहिये, मन के मौसम को बसंत मोड पर बनाये रखिये.
वक़्त बीतने के साथ साथ... कोई निखरता है ...कोई बिखरता है ...कोई सोना बनता है... कोई मिट्टी हो जाता है ..निर्भर सिर्फ आपकी क्षमताओ पर है ...इसलिए मुस्कराइए , विश्वास रखिये अपने सपनों पर, कोई साथ दे या न दे आपको अपना साथ देना है.
जो आप सोचते हैं वो सच भी होगा . इसलिए डरे नहीं, डर कर रोज़ मरें नहीं. यही फलसफा है मेरी ज़िन्दगी का...
इससे पहले कि मौत हमें पी जाये
चलिए ज़िन्दगी खुल कर जी जाये
इरा टाक - लेखक, चित्रकार , मुंबई
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खंडे और खावण खंडों का शहर जोधपुर कहानियां तितलियों की तरह हवा में उड़ती हैं , लोगों पर मंडराती हैं , बारिशों में भीगती हैं और मैं उनको ...
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आज की हमारी गेस्ट राइटर हैं, श्रीमती धा पी देवी, आशा है उनको आप सब का स्नेह मिलेगा.... धा पी देवी का परिचय धापी देवी एक दबंग ग्रामीण महिला...