Monday 30 March 2020

इन लोगों का साहस हमें हिम्मत देता है - इरा टाक



                            जब हम लॉक डाउन की वजह से बंद हैं और अपने खुले, हवादार घरों में बैठे फिटनेस, कुकिंग, फैमिली टाइम की फोटोज, वीडियोस शेयर कर रहे हैं तब हजारों मजदूर खाली पड़े राष्ट्रीय राजमार्गों पर पैदल ही अपने परिवारों के साथ दो या तीन पोटलियों में अपनी पूरी दुनिया समेटें अपनी ज़मीन की तरफ लौट रहे हैं. हज़ारों किलोमीटर पैदल नाप लेने का साहस, जुनून अदम्य है. ऐसे आपातकाल में जब सब बंद है, तो जाहिर है कि रोज़ कुआँ खोदने वालों के लिए सबसे भारी संकट है. ऐसे में अपनी जड़ों की तरफ लौट जाना उसे लिए जिंदा बचे रहने का एकमात्र उपाय लगता है. जहाँ उसे उम्मीद है कि उसकी धरती माँ उसे जगह देगी, किसी खोली में ठुंसे रहने के लिए उसके पास किराया देने का संकट नहीं होगा जहाँ उसे पेट भर न सही पर रोटी तो मिल ही जाएगी.
      पूरी दुनिया को एक महामारी ने इस तरह हिला दिया है जैसे पहले कभी नहीं हुआ होगा. पर सुविधा ये है कि कम से कम हमारे पास साधन हैं,फ़ोन हैं इंटरनेट हैं जिससे हम दुनिया से अलग- थलग होते हुए भी दुनिया के लगातार संपर्क में हैं.
लगातार लिखने, पढने, गाने सुनने, फ़िल्में देखने के बाद भी मन खाली महसूस करने लगता, मोबाइल पर शेयर हो रहे वीडियोस, सूचनायें थकाने लगती. एक अजीब सी खीज जहन पर तारी होने लगती. फ़ोन, टीवी, इन्टरनेट इतना मसाला भरा पड़ा है कि लोग ऊब सकते हैं, पागल हो सकते है पर बोर तो कतई नहीं हो सकते है. ऐसे में अवसाद में जाने का खतरा बना रहता है, जो अपने परिवारों के साथ हैं वो भी कभी कभी परेशान भी हो रहे, कभी साथ होने का शुक्र भी मना रहे. कहीं घर के काम को लेकर झगड़ों के मीमंस बन रहे हैं, तो कहीं अकेले लोग परिवार के लिए तड़प रहे हैं. हर दिन की अवधि जैसे 24 घंटों से बढ़ कर 42 घंटे हो चुकी है.
फोटो : गूगल 

जब कवि कवितायेँ ,कहानियां भेज कर लोगों के इनबॉक्स भरे दे रहें हैं. लोग quarantine हैश टैग लगा कर सेल्फी पर सेल्फी लगा रहे हैं... ऐसे में सब अचानक  बड़ा अश्लील और क्रूर लगने लगता है. जब दूसरे देश बर्बाद हो रहे हैं हजारों मौतें हो रहीं है तो हम कैसे बेशर्मी से अपने बर्तन धोने या झाड़ू लगाने के वीडियो गर्व से शेयर कर रहे हैं , कैसे सज- धज के तीज त्यौहार मना रहे हैं?

 क्या हमें लगता है हम इस खतरे से अछूते रह जायेंगे. पूरे विश्व की लड़ाई एक ऐसे शत्रु से हैं जो दिखाई भी नहीं देता ऐसे में वो और ताकतवर हो जाता है. उस शत्रु ने पूरी दुनिया रोक दी है शायद दुनिया का कोई भी शहर इतना वीरान और सूनसान पहले न हुआ होगा.
अपनी प्रार्थनाओं में इन सब लोगों को शामिल करने का वक़्त है. अगर हमारे पास बाँट सकने लायक धन और संसाधन हैं तो उनको बांटा जा सकता है. अगर ज़िन्दगी से कोई शिकायत है तो हजारों लोगों की भीड़ को देख कर खुद को समझाया जा सकता है जो खुले आसमान के नीचे बगैर छत के आँखों में सिर्फ अपने गाँव पहुँच जाने का सपना लिए चल रही है.
मैं मुंबई के मढ आइलैंड में अपने परिवार के साथ रहती हूँ और जब से लॉक डाउन हुआ मैं अपने घर जयपुर पिता के पास लौट जाना चाहती हूँ. जब जीवन मरण का प्रश्न घेरने लगा हो तो हमारे नेचुरल इंस्टिंक्ट अपनी जड़ों की तरफ लौट जाने को विवश करने लगती. उस जगह जहाँ की हवा भी हमें जानती है , जहाँ के लोग अजनबी होते हुए भी अपने से लगते हैं, जहाँ की मिट्टी का हम पर कर्ज है. हमेशा सकारात्मक बने रहने के बाद भी कई बार मन व्यथित हो ही जाता है. फिर मढ़ चर्च के बस stop पर एक गरीब महिला को बेंच पर सोते देख, मैं ठहर जाती हूँ, उसको देर तक निहारती हूँ, उसी पल मेरे मन की सारी खिन्नता दूर होने लगती है.
फोटो - इरा टाक 


 हम घरों में भरे पेट बैठे हुए शिकायतों के पुलिंदे लिए हुए हैं और इनके पास ओढने को केवल एक आसमान हैं. गलियों, सडकों में बेरोजगार हुए युवक मोबाइल पर गेम्स खेलने में व्यस्त हैं, बाज़ार में दो हलवाई चोरी छुपे बड़ा पाव बनाने में लगे हैं, सब को रोजगार की फ़िक्र है...कुछ पैसे कमा लेने की चिंता है. चूँकि वेर्सोवा की तरफ से जलमार्ग बंद कर दिया गया है और केवल बस सेवा चालू है, जो मढ़ द्वीप को सड़क मार्ग से जोड़ती हैं. हम पूरी तरह एक टापू पर फंस चुके हैं. बसों में भी अक्सर दो लोग ही नज़र आते हैं - ड्राईवर और कंडक्टर. यहाँ अभी भी मछुआरे मछलियाँ पकड़ और सुखा रहे हैं. यहाँ के समुन्द्र तट पर अभी भी लोग टहल रहें हैं हालांकि अब उनकी संख्या कम हो गयी है. बिल्लियों, कुत्तों और कव्वों की यहाँ भरमार है और आजकल उन्हीं का राज है, इंसान डरा , दुबका बैठा है.
आज सिर्फ धरती के इंसानों को खतरा है वो किसी भी धर्म जात पूछ के शरीर पर हमला नहीं करेगा. मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारे आदि सभी धार्मिक स्थल बंद हैं. राशन, दूध. सब्जियां, दवाइयां ज़रूरी हैं. अस्पताल 24 घंटें चालू हैं. शायद अब ये बात सबके दिलो दिमाग में बैठ पाए कि मनुष्य की पहली ज़रूरत अन्न, जल और स्वास्थ्य सेवाएँ हैं. उसका किसी धर्म विशेष का होने से ज्यादा ज़रूरी मनुष्य होना और मनुष्यता को बचा पाना है .
फोटो - विराज डी टाक 
चाल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार प्रकृति क्रमिक परिवर्तन द्वारा अपना विकास करती है, और धरती पर मौजूद प्रजातियाँ भी उसके हिसाब से खुद को ढालती हैं . जो ढाल लेती हैं वो आगे बढती है वो असमर्थ रहती हैं वो विलुप्त हो जाती हैं.
हम सबको इस परिवर्तन में ढ़लने के लिए खुद को तैयार करना होगा. इस जंग को पूरे धैर्य, सकारात्मकता के साथ मनुष्य बने रहते हुए लड़ना है. शायद ये महामारी हम सबको किफ़ायत का सबक सिखा दें. आज समझ में आ गया है कि कम से कम में भी गुज़ारा हो सकता है जीने को बहुत नहीं चाहिए. इस समय में कोरोना ने हमारी सारी ambitions, प्लान्स को धराशाही कर दिया है. अब सबसे पहले जिंदा बचने का प्रश्न है.पता नहीं ये कब तक चलेगा 18 दिन और या कुछ महीने, हम सबको तब तक हिम्मत बनाये रखनी होगी. मजदूरों के अलावा बहुत से कलाकार, फ्रीलान्सर्स भी बेरोजगार हो रहे हैं आज नहीं तो कल उनके सामने जीविका का भारी संकट आने वाला है. पर इस समय मैं यही कहना चाहूंगी -:” आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे”
इस अँधेरे का ढल जाने का इंतज़ार है और उम्मीद है कि हम सब जल्द ही एक नया सवेरा देखेंगे. हो सकता है हम में से कईयों शून्य से शुरू करना पड़े पर हम कर सकते हैं क्योंकि कुदरत ने मनुष्य को ऐसा बनाया है.
फोटो - इरा टाक 


-  -   इरा टाक
लेखक, चित्रकार, मुंबई
30 मार्च 2020




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