Saturday 2 February 2019

मुंबई में तीन साल

तीन साल पहले (फरवरी 2016) जब मुंबई में मैंने अपना डेरा जमाया था, मुंबई ने संघर्ष करना सिखाया, भीड़ में खुद को पाना सिखाया। हर कदम अपने लक्ष्य की ओर जाता है ये सोचते हुए, पैदल चलते हुए भी होठों पर मुस्कराहट रखना सीखा। सौ मुलाकातों में से दो या चार कुछ काम आती हैं, ये संयम रखना सिखाया।
 सब कुछ जानते समझते हुए भी खामोश रहना और अवॉइड करना भी सिखाया। फिट रहना, नियमित एक्सरसाइज भी यही से शुरू किया। नए दोस्तों से मिलवाया, जिनके विश्वास और सहयोग के बिना कुछ अधूरा रहता। कौन निभाता है उम्र भर के वादे, जो जितना साथ चल दे उसका शुक्रिया।
कुछ मिले, कुछ बिछड़े, कुछ भूल चुके लोग वापस ज़िन्दगी में आ गए। वक़्त सिखाता है, मोह से ऊपर उठना, खुद से जुड़ना, जो मिले उसका स्वागत जो छूट रहा उसको विदाई बिना किसी अफ़सोस के!
तीन साल में तीन नॉवेल, चार शॉर्ट फिल्म्स, एक फीचर फिल्म की स्क्रिप्ट, एक कहानी संग्रह और 3 एकल और कई सामूहिक कला प्रदर्शनियां और लगातार यात्राएं! मुंबई ने बिना थके जुनून से काम करना सिखाया। वसीम बरेलवी साहब का ये शेर हमेशा याद रहता है - घरों में रह कर कोई रास्ता नहीं मिलता, घरों से निकलो तो क्या नहीं मिलता
इसमें मेरे शहर जयपुर, मीडिया असल और वर्चुअल दुनिया के मित्रों, पाठकों का भी बहुत सहयोग रहा, हम जो भी बन पातें हैं इस कुदरत और इसके खूबसूरत जहीन लोगों के सहयोग से ही बन पाते हैं !
सबको मेरा सलाम, मुहब्बत बनाए रखिए !
इरा टाक
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