Friday 28 December 2018

तलाश गुमशुदा हंसी की - इरा टाक

बहुत अच्छे लगते हैं खिलखिला कर हँसते चेहरे
क्यों नहीं हंस पाती मैं इनकी तरह...
क्या इनकी हंसी दबाई नहीं गयी बचपन में ?
क्या जवानी की दहलीज़ पर
उदासिओं के बादलों ने नहीं घेरा इनके वजूद को?
क्या किसी धोखें ने नहीं कचोटा इनकी रूहों को
क्या ढ़लती शामें इनको डराती नहीं?

मैं ढूँढ रही हूँ उस गुमशुदा हंसी को
जो खो गयी कहीं जीवन की कटु सच्चाइयों में
और उसकी जगह एक गंभीरता ने चेहरे पर घेर ली
हमें अपना उपचार खुद करना होता है विलीन होने से पहले !
वर्ना ये हंसीं यहीं छूट जाएगी
और आत्मा ओढ़ कर जाएगी एक गंभीर उदासी

अति गंभीरता भी एक रोग है
जो जकड़ लेता आपके शब्दों को
जमा देता सुख और दुःख की अनुभूति को
दुनिया में रहते हुए दुनिया को भूलने लगते
खुद को पाने के लिए छटपटाते हुए
मुझको अपनी खोयी हंसीं याद आने लगती
जो बिछड़ गयी थी वक़्त से पहले ही
मेरे मासूम होठों से
ऐसा नहीं कि बीते सालों में मैं मुस्करायी नहीं
पर वो खनक लुप्त थी, जो भीतर के नीरव सन्नाटे को तोड़ पाती
हँसतें हँसतें ऑंखें भर कर आत्मा को भिगों दे, वो नहीं हुआ
एक बेफिक्र हंसी को जन्म देना चाहती हूँ
जो वास्तविक हो, अभिनय न हो
दुःख में सुख का अभिनय करना, और जख्मी करता है
जब कोई बोझ न हो दिमाग पर, आत्मा पर कोई खरोंच न हो.
मन रुई के फाहे की तरह हल्का और सफ़ेद,
किसी भी रंग में रंग जाने को तैयार हो
जब ख़ुशी फूटे रोम रोम से
रेशमी कोपलों के मानिंद
ऐसे खिलखिला कर हंसने की ख्वाइश है
मैं अपनी हंसी अपने साथ लेकर जाना चाहती हूँ !
- इरा टाक

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