यात्रायें हर बार कुछ न कुछ नया सबक देती ही हैं, नई जगह, नई बधाएं, नए लोग और नए हम।
यूँ तो लगातार मुंबई-जयपुर करते हुए मुझे यात्राओं की आदत हो चुकी है, मेरा सूटकेस हमेशा पैक ही रहता है,
लेकिन जब कुछ महीने पहले मुझे मध्य प्रदेश के विंध्य-मैकल कविता कला संवाद का
आमंत्रण मिला जिसमें वहाँ के आदिवासी इलाके घूमने का प्रस्ताव भी था, तो मन आनंदित
होने के साथ-साथ थोड़ा असहज भी हो गया। वजह थी अपने कम्फर्ट ज़ोन
से निकलने का आलस और भय। हालाँकि वहाँ जो भी कवि-लेखक आने वाले थे, उनमें से कुछ परिचित थे किन्तु
आभासी तौर पर यानी कि फेसबुक के माध्यम से, असल जीवन में उनसे मिलना नहीं हुआ था।
तो मन बड़ा पशोपेश में पड़ गया था, दूसरे उस इलाके में हफ़्ते में केवल एक बार ही
ट्रेन जाती थी, इस वजह से तीन दिन के कार्यक्रम के लिए आना-जाना मिला कर छह दिन लग
रहे थे। पर नई जगह और नए लोगों से मिलने का
लालच भी कम नहीं था, ख़ासकर भोपाल से शशांक
गर्ग जी, पल्लवी त्रिवेदी जी जो पुलिस अधिकारी होने के साथ साथ कवि-लेखक भी हैं, कोलकाता से यतीश कुमार जी जोकि रेलवे
में बड़े अधिकारी होने के साथ-साथ कवि और लेखक भी हैं, से मिलने का लालच मेरे डर पर हावी हो
गया।
आख़िर हिम्मत कर के इस महोत्सव के कर्ताधर्ता प्रखर पत्रकार, कवि और समाज सेवी
श्री संतोष कुमार द्विवेदी जी को ‘हाँ’ बोल दिया गया।
30 सितम्बर की रात मेरी जयपुर से ट्रेन थी, जो अगले दिन दोपहर ढाई बजे तक
शहडोल पहुँचाने वाली थी। ट्रेन की यात्रा में
ज़्यादा दिक्कत नहीं हुई सिवाय इसके कि मेरी अपर बर्थ थी, ऊपर एसी की हवा सीधे लगती
है, ट्रेन का डिब्बा काफ़ी ख़ाली था तो मैंने टी सी से पता करके अपनी सीट बदल ली, उसके बाद ही मैं चैन से सो सकी।
ट्रेन ने वक़्त पर शहडोल पहुंचा दिया था, स्टेशन पर संतोष जी खड़े थे, जिनको देख
कर काफ़ी संतोष हुआ, उनसे भी 8-9 साल के आभासी परिचय के बाद पहली साक्षात मुलाक़ात
थी। काफ़ी छोटा सा रेलवे स्टेशन था, बाहर टैक्सी खड़ी थी, उसमें सामान
लादने के बाद हम होटल की तरफ बढ़ गये। चूँकि मुट्ठी भर का शहर
था तो होटल भी जल्दी हाथ आ गया।
मुझे चेक इन कराने के बाद संतोष जी
शाम को आने का वादा करके चले गये, मैंने चाय पी, थोड़ा आराम किया और उसके बाद मैंने होटल का निरीक्षण-परीक्षण
किया, उसका रूफ टॉप काफ़ी सुरुचिपूर्ण ढ़ंग से बनाया हुआ था। होटल के मालिक से देर तक बात करते हुए मैंने शहडोल शहर के बारे में जानकारी
ली साथ ही वहाँ कोल्ड कॉफ़ी पी और सैंडविच खाए।
तकरीबन शाम सात बजे भोपाल से शशांक
गर्ग जी भी आ गये, और हम सब सेंट्रल एकेडेमी स्कूल गये, जहाँ पर संतोष जी ने अचानक
से एक कवि सम्मेलन प्लान कर लिया था। वहाँ भोपाल से चर्चित कवि विवेक चतुर्वेदी जी, बीकानेर से डॉ चंचला पाठक जी, इलाहाबाद से युवा कवि केतन यादव, लवली यूनिवर्सिटी जालंधर से अनिल
पाण्डेय, आदि से मिलना हुआ। वो सब भी उसे होटल में
रुके थे जहाँ मैं रुकी हुई थी। वहाँ परिचय हुआ, चाय के बाद काव्य पाठ हुआ।
फिर हम सब शहडोल इंडियन कॉफ़ी हाउस गये, जयपुर से बाहर “इंडियन कॉफ़ी हाउस देख
कर अच्छा लगा। वहाँ बातचीत से मालूम हुआ कि पहला
इंडियन कॉफ़ी हाउस जबलपुर में शुरू हुआ था। कॉफ़ी हाउस में बहुत वाज़िब दाम पर खाना-पीना
मिल जाता है। वहाँ खाना खाने के बाद सब वापस होटल में चले गये। शशांक जी ने मुझे अगले दिन छह बजे तैयार रहने को कहा, फिर हम अगले दिन शहडोल
में विराट मंदिर, कंकाली माता का मंदिर और बूढ़ी माता का मंदिर देख कर आये।
फिर सब निकल पड़े जोहिला जलप्रपात देखने करीब एक डेढ़ घंटे की यात्रा के बाद हम
जोहिला नदी के तट पर थे, तीन गाड़ियाँ थीं फिर जंगल की तरफ़ चल पड़े। भोपाल से आये शायर भावेश दिलशाद से वहीं
परिचय हुआ, फिर शेर सुनते-सुनाते एक डेढ़ किलोमीटर की पैदल यात्रा के बाद हम जोहिला
जलप्रपात के पास पहुँच गये, बहुत तेज़ प्रवाह था नदी का वहाँ कुछ देर रुकने और तस्वीरें खींचने के बाद हम
वापस ऊपर पहुँचे, जहाँ आदिवासी भोज का आयोजन था। उस दिन गाँधी जयंती थी तो पहले गाँधी जी को नमन करते हुए उनका प्रिय भजन गाया गया उसके बाद भोज
प्रारंभ हुआ, ताजे धुले पत्तल परोसे गये। मक्के का बड़ा, रोटी, लौकी की सब्जी, काकून (एक लोकल अनाज) की खीर, खोया, आंवले का अचार इतना सब कुछ था, आसपास बहुत छोटे-छोटे मेंढ़क भी फुदक
रहे थे और कभी कोई जंगली मकड़ी आ कर हमारी थाले के आसपास मटकने लगती, आदिवासियों की समस्याएँ सुनते हुए
हमने भोजन किया। पहले ही देर हो चुकी थी तो उनके
गीतों का आनंद भी ठीक से न ले सके, संतोष जी के इशारे पर हम सब वहाँ से आदिवसियों
को नमस्कार करके चल दिए।
फिर एक डेढ़ घंटे का सफ़र और पहुँच गये हम ब्योहारी जहाँ ढोल-बाजे और फूल मालाओं
से हमारा स्वागत किया गया। वहाँ बघेली और हिंदी का कवि सम्मलेन था, देश के बड़े-बड़े कवि और विद्वान बैठे हुए
थे। हम डेढ़-दो घंटा देरी से आये थे लेकिन
वहाँ मौजूद श्रोताओं और दर्शकों का उत्साह देखने लायक था, लोग दूर दूर के गाँव से
भी सुनने आये थे।
बघेली लोग गीत, फिर हिंदी कवि सम्मेलन, स्वागत सत्कार, कार्यक्रम लम्बा खिचंता गया और मेरे
सिर में लगातार यात्रा की वजह से दर्द शुरू हो गया जो काफ़ी बढ़ चुका था, सिर्फ़
अच्छी नींद ही जिसका इलाज थी। भोजन से निवृत हो हम ब्योहारी से करीब रात ग्यारह बजे निकले। रात बारह बजे हम सब बांधवगढ़ पहुँचें
जहाँ रुकने का इंतज़ाम था। सुबह जल्दी उठना था क्योंकि टाइगर सफ़ारी करनी थी। मैं भोपाल से आई रिटायर्ड प्रोफ़ेसर और कवि-कथाकार रेखा कस्तावर जी के साथ एक
रूम में थी, वो बड़ी ही मस्तमौला, ज़िंदादिल थीं। हम दोनों ही सुबह छह बजे एकदम तैयार थे, टाइगर डेन रिसोर्ट वाले भैया ने चाय
भी भेज दी थी।
हम साढ़े छह बजे बांधवगढ़ सफ़ारी के दफ़्तर के सामने थे, धीरे-धीरे बाकी कवि गण भी
आना शुरू हो गये थे।
यतीश कुमार, पल्लवी त्रिवेदी, शशांक गर्ग, रेखा कस्तावर, श्रुति कुशवाहा
(पत्रकार) और मैं एक जिप्सी में थे। हम सब इतना उल्लास में
थे मानो हमारा बचपन लौट आया हो। अलग-अलग तरह के पेड़-पौधे,
जानवर दिखाई दे रहे थे बस वही न दिखा जिसके नाम पर ये सफ़ारी थी यानी कि टाइगर!
स्त्रनगुलर वाइन ट्री बहुतायत में थे, इन्होने अपने प्रेम का झांसा देकर कई
मासूम पेड़ों को अपना शिकार बना लिया था। ये किसी भी पेड़ को पूरी
तरह अपनी शाखाओं से जकड़ लेते हैं और अंतत वो पेड़ काल के गाल में समा जाता है।
वहाँ पुराने किलों के अवशेष थे और त्रिदेव, ब्रह्मा, विष्णु, महेश की
प्रतिमाएं भी थीं, जिसमें विष्णु शयन मुद्रा में थे। वहाँ काफ़ी तस्वीरें खिंचाने और वरिष्ठ
कवि अष्टभुजा शुक्ल जी से कुछ कवितायेँ सुनने के बाद हम वापस निकला पड़े।
नहा धो कर लंच करके फिर चंदिया की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में पद्मश्री से सम्मानित बैगा
कलाकार जुधैया बाई से मुलाक़ात की, जो अब लकवा का शिकार हैं और कृशकाय हो चुकी हैं। उनकी आर्थिक स्थिति ज़्यादा ठीक नहीं थी, उनका पूरा परिवार उनके ही भरोसे था। वहाँ पर उनकी और उनके परिवारजनों की
बनाई कुछ पेंटिंग्स भी खरीदी। उनको साड़ी शाल से
सम्मानित किया गया।
फिर हम सब संतोष द्विवेदी जी के नेतृत्व में पहुँच गये चंदिया, जहाँ पर माटी
महोत्सव मनाया जाना था। सूत की माला और मिट्टी
के पात्र भेंट करके सभी आमंत्रित कवियों और लेखकों का सम्मान किया गया। कुंभार लोकगायन की प्रस्तुति हुई, उसके बाद रचनापाठ हुआ, तबियत ठीक न होने की
वजह से मैंने वहाँ कवितायेँ नहीं पढ़ी और जल्दी उमरिया लौट आई, जहाँ आज की रात्रि
विश्राम था।
अगले दिन सुबह अमरकंटक के लिए निकल पड़े। लेकिन देर हो जाने की वजह से अमरकंटक कैंसिल कर के सीधे कार्यक्रम के लिए
डिंडौरी जाने का प्लान बना। उमरिया से वहाँ तक का
रास्ता बेहद दिलकश है। हरी-भरी वादियाँ, दूर-दूर तक निर्जन
स्थान, खूब घने पेड़।
डिंडौरी के कलाग्राम पतन गढ़ में गोंड पेंटिंग के जनक स्व. जनगण सिंह श्याम के
घर पर रुके और चाय नाश्ता किया। वो स्वामीनाथन की खोज
थे, वही इस गाँव से उनको भोपाल ले गये थे। उसके बाद जनगण सिंह श्याम ने अपने
गाँव के लोगों को भोपाल बुला कर ये भित्तिचित्र कैनवस, कागज पर बनाने सिखाये, धीरे धीरे
उनका पूरा ग्राम गोंड पेंटिंग बनाने लगा इसलिए इसको कलाग्राम कहा जाता है। गाँव के हर घर में एक न एक पेंटर तो है ही!
उनकी पत्नी नौकुसिया श्याम जोकि ख़ुद
भी एक गोंड कलाकार हैं, इस कार्यक्रम की वजह से भोपाल से हम लोगों से मिलने आयीं। दोनों का प्रेम विवाह हुआ था, दोनों
ने साथ में ढ़ेरों उतार-चढ़ाव देखे थे।
वो अभी भोपाल के भारत भवन में चित्रकार के रूप में काम करती हैं, उनका पुत्र
मयंक और पुत्री जापानी दोनों भी गोंड चित्रकार के रूप में सक्रिय हैं। जनगण सिंह श्याम का 2001 में जापान
में रहस्यमय हालत में निधन हो गया था। उसके बाद जैसे नौकुसिया की दुनिया ही उजड़ गयी जैसे-तैसे उन्होंने ख़ुद को और
पूरे परिवार को संभाला।
दोपहर का खाना हमने गोंड कलाकार चन्द्रकली के घर में खाया। जहाँ हमको पत्तल पर खाना परोसा गया।
ये गोंड ट्राइब की उपजति प्रधान के कलाकार थे, पहले ये पुरोहित का काम करते थे
और उनके वंशावली को बोल कर या गा कर सुनाते थे, वही बाद में चित्रों के रूप में रूपांतरित
हो गये।
फिर वह स्थित कला भवन गये जहाँ जनगण श्याम को मालायार्पण करके कार्यक्रम शुरू
हुआ, कला भवन की दीवारों पर खूब चित्र लगे हुए थे, छतों पर भी सुन्दर गोंड चित्रण
था। इस बीच तेज बारिश भी शुरू हो गयी और
बत्ती गुल हो गयी। खिंचते-खिंचते कार्यक्रम लम्बा खिंच गया, मैं पानी की तलाश में बाहर निकल आई। बारिश में पाटनगढ़ का सौन्दर्य और भी निखर आया था.
बहुत ही सुन्दर हराभरा गाँव था, वहाँ बने घरों की दीवारों पर गोंड पेंटिंग्स बनी हुई थीं, आसपास टहलती
मुर्गियां, गाय और भैंस, छतों पर चढ़ी हुई कद्दू और पेठे की बेल।
वहीं नीचे हरियाली और शोर शराबे से दूर मध्य प्रदेश सरकार का मिडवे भी बना हुआ
था, जहाँ हमारे रुकने की व्यवस्था थी। मिडवे की दीवारें भी
गोंड पेंटिंग्स से सजी हुई थीं।
चूँकि कई लोग भोपाल लौट गए थे तो अब महिलाओं में बीकानेर से आई डॉ चंचला जी और
मैं ही बचे हुए थे, हम दोनों की ट्रेन अगले दिन 5 अक्टूबर को बिलासपुर से थी जोकि
इस जगह से 150 किलोमीटर दूर था।
5 अक्टूबर की सुबह अमरकंटक जाने का कार्यक्रम था, सूर्योदय देख सकें इसलिए
पौने पांच बजे ही तैयार होकर निकलना था। सुबह-सुबह काफ़ी धुंध थी,
निकलने में थोड़ी देर हुई तो हमारे वहाँ पहुँचने तक सूर्योदय हो चुका था। पहले हम सोनमुडा पहुँचें, ये अनूपगढ़ जिले में पड़ता है, जहाँ से सोनभद्र नदी
का उद्गम स्थल है। नर्मदा, सोनभद्र और जोहिला के प्रेम
त्रिकोण की अलग-अलग कथाएं इस इलाके में बहुत प्रचलित हैं।
कहते हैं कि सोनभद्र और नर्मदा का
विवाह उनके पिता मैकल पर्वत ने तय किया था जिसकी ये शर्त थी कि सोनभद्र “गुल
बकावली” के पुष्प लेकर आयें लेकिन सोनभद्र पुष्प नहीं ला पाए और शर्म के मारे धरती
में समा गये। एक कथा ये हैं कि नर्मदा ने अपने सखी
जोहिला को अपने दूल्हे सोनभद्र को देखने भेजा था, चूँकि सोनभद्र ने पहले कभी
नर्मदा को देखा नहीं था तो वो जोहिला को ही नर्मदा समझ उससे प्रेमालाप करने लगे, ये सब नर्मदा ने देख लिया और कुपति
हो कर दिशा बदल ली, वो एकलौती नदी हैं जो खम्भात की खाड़ी में गिरती है। नर्मदा को चिरकुंवारी माना जाता है और कहते हैं कि इनके दर्शन मात्र से ही
सारे पाप धुल जाते हैं।
सोनभद्र भी लज्जित होकर धरती में समा गये और 17 किलोमीटर बाद बाहर निकले जहाँ
आगे जोहिला उनसे मिल गयी।
सुबह हल्की सर्दी थी, सोनमुडा से सोनभद्र का उद्गम होता है, वो जलप्रपात के रूप में गिरती है और
आगे धरती में समा जाती है। फिर 17-18 किलोमीटर दूर
वो वापस बाहर धरती की सतह पर बहना शुरू करती है।
वहाँ कुछ देर रुकने के बाद हम साल के घने जंगलों और सावित्री तालाब को पार
करते हुए अमरकंटक पहुंचें, जो नर्मदा का उद्गम स्थल है।
वहाँ पांच मंदिरों का समूह था, जिनको पंचमठा के नाम से जाना जिसे 15-16 वीं
शताब्दी में गोंड शासन काल में बनवाया गया था।
वहाँ नर्मदा के उद्गम स्थल के चारों तरफ कई मंदिर बने हुए थे, वहाँ एक हाथी की
मूर्ति बनी हुई थी, जिसके नीचे से निकलने की होड़ लगी हुई थी, यहाँ मान्यता है कि जो
पुण्यात्मा है वही इसके नीचे से पार हो सकता है। नर्मदा मैया के दर्शन करने के बाद
हमने प्रसाद खरीदा।
वहाँ से कपिल धारा गये जहाँ नर्मदा एक झरने के रूप में नीचे की तरफ़ गिरती है। वहाँ सबसे युवा कवि केतन यादव ने हम
सबके लिए नर्मदा नदी से कुछ छोटे पत्थर निकाले, जिनको हम याद के रूप में संजो
लाये, माना जाता है कि नर्मदा नदी का हर पत्थर शिवलिंग का रूप होता है। वहाँ से निकल कर हम पास ही बनी हुई वन विभाग की नर्सरी गए, जहाँ गुल बकावली
का पौधा खरीदा। गुल बकावली एक औषधीय पौधा है जिससे
आँखों की दवाई बनती है और साथ ही साथ इसके अन्य भी कई लाभ हैं।
फिर हम वापस पाटनगढ़ लौटे, जल्दी से अपना सामान पैक किया और प्लान ये था कि लंच
करके बिलासपुर को निकल जायेंगे। केवल तीन घंटे का ही तो रास्ता था, ट्रेन शाम को 6:25 पर चलनी थी।
खा-पी कर सबसे विदा लेकर हम करीब पौने दो बजे निकल गये। हमारा टैक्सी ड्राईवर बलराम बड़ा हंसमुख और सीधा-साधा बंदा था।
रास्ते की हरियाली देख हुए हम झारखण्ड बॉर्डर में दाख़िल हो गये, यहाँ का
नैसर्गिक सौंदर्य अद्भुत था। रास्ते में एक-दो जगह
रुक कर तस्वीरें भी ली, चंचला जी से बात करते हुए सफ़र बड़े मज़े से कट रहा था कि तभी मैप देखा उसके
हिसाब से हम गाड़ी छूटने के वक़्त ही पहुँच रहे थे, पेट्रोल भरवाने के बाद हमारे होश
फाकता हो गये, बलराम को तेज़ कार चलाने का निर्देश दिया तब मालूम पड़ा कि उसकी तो स्पीड लिमिट
80 पर सेट है उससे तेज़ चल नहीं सकती और फिर हुआ शुरू चूहे-बिल्ली का खेल!
अब कितना भी तेज़ दौड़ा लो भाई मैप तो पहुँचने का टाइम साढ़े छह ही बता रहा था। यानी ट्रेन छूटने के 5 मिनट बाद। ट्रेन भला किसी के लिए थोड़े रुक जायेगी। अब किसी चमत्कार की ही उम्मीद में बैठे थे हम। फिर बिलासपुर शहर शुरू हो गया तो वहाँ का बेतरतीब ट्रैफिक यात्रा को और
मुश्किल बना रहा था।
ट्रैफिक पुलिस से पंगा लेकर, लोगों को हटाते हुए जैसे-तैसे पहुंचे, हांफते हुए मैं प्लेटफार्म पर भागी
कि शायद रुकी हो तो पकड़ लें, चैन खींच दें, तब तक मेरी सहयात्री और ड्राईवर सामान लेकर आ ही जायेगा पर
नहीं भाई ट्रेन तो जा चुकी थी। भारी निराशा हुई जैसे
कोई सपना चल रहा हो यकीन सा नहीं हुआ कि ट्रेन छूट गयी। एक तो पहले ही आरएसी आई थी और उस पर छूट भी गयी।
वैसे तो यतीश जी जो रेलवे में अधिकारी हैं उन्होंने भरोसा दिलाया था कि टी सी
कोई व्यवस्था कर देगा लेकिन मान लो अगर ट्रेन में कोई ख़ाली सीट ही न होती तो एक ही
बर्थ पर दो लोग पूरी रात कैसे बिताते? ख़ैर अब तो वो बात ही खत्म थी।
वहीं बैठ कर अमेज़न पर अगली ट्रेन चेक की तो अगले दिन की एकमात्र ट्रेन दुर्ग
एक्सप्रेस कैंसिल थी। छह चालीस हो चुके थे, मैं तेजी से दिमाग दौड़ा रही थी। हवाई जहाज की टिकट 25 हज़ार रुपये की मिल रही थी, ऐसी हमको घर लौटने की कोई
इमरजेंसी नहीं थी कि एफडी तुड़वा दी जाए।
फिर मैंने ट्रेन रूट चेक किये कि कटनी
से जयपुर की अगले दिन की ट्रेन थी, बस तत्काल में बुक कर ली अपनी और चंचला जी की
टिकट।
अब रात कहाँ गुजारें, संयोजक संतोष जी को तुरंत बताया गया, शंशाक जी और यतीश जी के भी होश फाकता। ड्राईवर बलराम पर फ़ोन के माध्यम से गलियों की वर्षा हो रही थी, मुझे उस
बेचारे पर दया आने लगी, 24-25 साल का ही होगा, दुबला पतला सा आदिवासी लड़का।
संतोष जी ने उमरिया आने को बोला लेकिन वो काफ़ी दूर था तो तय हुआ कि रास्ते में
एक गेस्ट हाउस में रुकने का इंतज़ाम किया जाए और फिर सुबह वहाँ से उमरिया आया जाये। उमरिया में ही उनका घर था और कटनी उमरिया से केवल एक घंटे की दूरी पर है।
जब हम बिलासपुर से चलने लगे तो जिस जगह जाना था, वहाँ पहुँचने का समय 12 बजे
बता रहा था।
मैं मेंटली इतनी टायर्ड थी कि मैंने कहा पहले चाय पीते हैं और फिर कुछ आगे सोचेंगे। चाय और कुछ फल लेकर मैंने पहले चंचला जी को यकीन दिलाया कि मैं 20 साल से कार
चला रही हूँ और फिर ड्राईवर को पीछे बैठने का आदेश दिया। ड्राईवर वैसे ही थका हुआ था और अब ट्रेन छूट जाने के बाद से मेरा भरोसा उस पर
से बिल्कुल उठ चुका था।
मैंने स्टेरिंग व्हील संभाल लिया फिर जैसे ही
हैंडब्रेक हटाया, वो एकदम लुंजपुंज, बलराम बोला मैम इसका हैंडब्रेक ख़राब है। मैंने पूछा- ब्रेक तो ठीक हैं?
-न मैम वो भी ढीले हैं।
-वाह! और भी कोई ऐब हों तो बता दो!
मैंने ताली बजाई।
स्पीड 80 से ज़्यादा बढ़ नहीं सकती, विंडस्क्रीन पर स्क्रेच पड़े हुए
जिससे सामने वाली गाड़ी की लाइट कुछ ज़्यादा ही तेज़ चमकती। अब ऐसे टूटे-फूटे रथ की कमान मेरे हाथों में थी और
मुझे सारथी बन कर चंचला जी और बलराम को पार लगाना था। बड़ी ज़िम्मेदारी. रात का वक़्त, अनजान राज्य,
अनजान सड़कें, घने जंगल।
बस दिमाग को फोकस किया और एक ही लक्ष्य बनाया कि
सुरक्षित पहुँचना है। रहने का
इंतज़ाम साउथ ईस्टर्न कोल फ़ील्ड्स लिमिटेड के वी वी आई पी गेस्ट हाउस सोहागपुर, बुढार में हो चुका था। ख़राब और सूनसान रास्ता और घने जंगल जो जगह दिन में मनमोहक लग रही थी, अब वो
डरावनी और भयवाह हो चुकी थी, झारखण्ड में नक्सलिओं का डर, सुनसान रास्ते पर टायर
पंक्चर हो जाने की आशंका, ऊपर से नेटवर्क भी कम ही आ रहे थे।
ड्राईवर पीछे बैठा हुआ बार-बार यही कह रहा था कि आप
दोनों लेडीज हैं इसलिए डर लग रहा कहीं पंक्चर हो गया तो, मैंने उसको डांट लगाई और
अच्छा सोचने को कहा।
डॉ चंचला पाठक जो मूल रूप से बिहारकी हैं लेकिन अब
बीकानेर रहती हैं, वो पूरा धैर्य बनाये हुए थी। वो फालतू का प्रलाप करतीं कि हाय ट्रेन छूट गयी, हमारी किस्मत ख़राब, ड्राईवर की गलती, इसकी गलती, उसकी गलती...
तो मेरा कार चलाना मुश्किल हो जाता। वो हल्के-फुल्के मज़ाकिया सवाल मुझसे करती रहीं और
उनको रिकॉर्ड करती रहीं, इस तरह उन्होंने एक मज़ेदार पॉडकास्ट रिकॉर्ड कर लिया
हालाँकि उनको जवाब देते वक़्त भी मेरा पूरा ध्यान सड़क पर था कि कहीं कोई चूक न हो
जाए।
रात के दस बजे ही ऐसा लग रहा था कि जैसे आधी रात हो
चुकी हो। कहीं-कहीं
तो सड़कें पूरी तरह वीरान थीं, घुप्प अँधेरा और दूर-दूर तक कोई अन्य वाहन नहीं। रोशनी के नाम पर हमारी कार की अधमरी हेडलाइट्स ही
थीं।
चियुगम चबाते और खट्टी-मीठी टॉफ़ी चूसते हुए दो घंटे
का सफ़र तय कर लिया था। नवरात्र शुरू
हो चुके तो रास्ते में पड़ रहे गांवों में दुर्गा पंडाल लगे हुए थे, उनकी साज सजावट
और रोशनी ये हिम्मत देती कि अगर कोई दिक्कत हुई तो यहीं कहीं किसी पंडाल में रुक
जायेंगे।
मंजिल अभी भी बहुत दूर थी, ‘एटीए’ यानी पहुँचने का
समय अब रात एक बजे बता रहा था। लग रहा था
इससे तो बिलासपुर में ही कोई होटल कार रुक जाते, लेकिन अब तो अतीत में जाकर उसे
सुधारने का कोई उपाय न था। रास्ता जैसे खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
शशांक गर्ग जी जो भोपाल में एएसपी हैं, बीच-बीच में
कॉल कर रहे थे, उनको लाइव लोकेशन शेयर कर दी थी ताकि कोई दिक्कत हो तो उनको मालूम रहे कि
हम कहाँ हैं।
फिर चंचला जी बलराम को बोलने लगीं कि अब तुम चला लो
लेकिन वो चलाने को राज़ी न हो, बोले कि इरा मैडम बढ़िया चला रहीं हैं।
वो दो-चार बार कहने के बाद राज़ी हुआ, मैं भी आराम से बैक सीट पर पैर पसार कर
बैठ गयी और अपने मोबाइल पर बिजी हो गयी। कुछ ही देर में बंदा नींद के झोंके लेने लगा, एक-दो जगह कार ट्रक से भिड़ते-भिड़ते
बची, तब चंचला जी को दोबारा मेरी याद आई। पेट्रोलपंप पर टॉयलेट करने
रुके तो ड्राईवर ने ख़ुद बोल दिया मैडम आप चला लो, मुझे नींद आ रही है। बेचारा वो भी कई दिन से सोया नहीं था
और हम भी थके थे लेकिन इस वक़्त तो सुरक्षित पहुँच पाना ही एक मात्र लक्ष्य था। औरत होने के नाते ज़्यादा ख़तरा तो हमें ही था, तो दोबारा स्टेरिंग अपने हाथ
में ले लिया।
मैप जो लोकेशन बता रहा था, उसके हिसाब से अभी भी 45 मिनट बचे थे। पतली पगडण्डी, खेत-खलियान न जाने कहाँ-कहाँ से मैप ले जाने लगा। एक जगह रात के पौने एक बजे मोटरसाइकिल पर लड़के-लड़कियां घूम रहे थे, बहुत डर
सा लगा न जाने कौन हों, अनजान जगह, अनजान लोग!
ख़ैर जैसे-तैसे रास्ते पर गोल-गोल घूमते हुए हम रात के एक बजे उस गेस्ट हाउस
में पहुंचे। गार्ड रूम खोल गया, दरवाज़े पर नर्मदा लिखा हुआ था, नर्मदा मैया से अभी कोई हिसाब बाकी
था जो वापस बुला लिया वरना हम इस वक़्त ट्रेन में सो रहे होते। ऐसा लगा रहा था जैसे पगफेरे की रस्म निभा ली गयी हो।
वो एक छोटे फ्लैट जैसा था, बाहर शानदार ड्राइंगरूम और अन्दर बेडरूम, हमने चैन
की साँस ली और हमारे साथ लगातार फ़ोन पर बने हुए लोगों को भी चैन की सांस आई। चंचला जी तो भावविभोर थी कि मैं उनको
सुरक्षित ले आई। फिर हम आराम से सो गये। सुबह चाय पी, आराम से नहाये-धोये, नाश्ता किया और फिर उमरिया के लिए निकल पड़े। वहाँ संतोष जी हमारा इंतज़ार कर रहे थे।
उनके घर पर उनकी पत्नी ममता जी और माता जी से मुलाक़ात हुई, उनका पालतू कुकुर हनी भी था। उन्होंने अच्छी फुलवारी लगा रखी थी, जगह-जगह काष्ठ से बनी आदिवासी मूर्तियाँ
सजी हुई थीं। संतोष जी आदिवासियों के उत्थान लिए
बहुत काम कर रहे हैं, वो पत्रकार, लेखक होने के साथ-साथ एक जुझारू समाजसेवक भी हैं। उमरिया पहुँच कर याद आया कि उनकी उपहार में दी गई दो गोंड पेंटिंग्स तो हम
रात अफरातफरी में रेलवे स्टेशन पर ही भूल आए थे।
उनके घर दोपहर का भोजन किया, बातचीत हुई फिर हम शाम को 7 बजे कटनी के लिए निकल
पड़े। ट्रेन रात साढ़े नौ बजे की थी पर आज किसी भी तरह का कोई चांस नहीं लेना चाहते
थे।
ममता जी ने हमारा रात का खाना और अपने हाथ का बनाया मिर्ची का स्वादिस्ट अचार
पैक कर दिया था। ट्रेन छूटने की एक वजह ये भी लगती थी
कि हमारा ममता जी और माता जी से मिलना छूट गया था। उनसे मिलकर ही ये यात्रा पूरी मानी गयी। चलते समय संतोष जी ने हमको फिर से दो गोंड पेंटिंग्स उपहार में दे दीं।
बलराम ही कटनी छोड़ने आया था, उसने ट्रेन में बैठा कर पिछली शाम ट्रेन छूट जाने
के गुनाह का पश्चाताप किया।
आख़िर ट्रेन आई और हम उसमें बैठ गये, वो एक रात जो पहाड़ जैसी हो गयी थी उसकी
याद समेटे हम सुकून से अपनी-अपनी बर्थ पर लेट गये और सुबह ग्यारह बजे हम जयपुर आ
चुके थे।
हालाँकि चंचला जी को तो बीकानेर जाना था पर उन्होंने मेरे घर के पास ही रहने
वाली अपनी बहन के घर एक-दो दिन रुक कर बीकानेर जाने का फैसला किया।
ये विंध्य-मैकल यात्रा अद्भुत अनोखी और रोमांचक रही और सबकी दुआओं और अपनी
हिम्मत के भरोसे हम उस काली रात को पार कर पाए।
- इरा टाक