पिता जी की पोस्टिंग दूसरे राज्य में थी इस वजह से वो महीने में एक बार घर आ पाते थे..हमारे पास सरकारी आवास था जो मेरी माँ को मिला हुआ था..तीन कमरों का वो घर हमारी पूरी दुनिया थी...माँ मुझे कठोर अनुशासन में रखती थी...स्कूल से घर और घर से स्कूल..न किसी से बोलो न मिलो..माँ अक्सर कहती "लड़की जात हो...छोटा शहर है..छोटी सोच वाले लोग..और तुम्हारे पापा भी यहाँ रहते नहीं..इसलिए सोच समझ के चलना..खबरदार जो किसी लड़के से बात की..मुझसे बुरा कोई नहीं होगा"
सिर्फ शाम को आधे घंटे कॉलोनी में बैडमिंटन खेलने की इजाज़त मिली हुई थी...वो आधा घंटा मेरे लिए बहुत कीमती होता था और उस आधे घंटे में ,मैं वर्ल्ड बैडमिंटन चैंपियन बनने का ख्वाब बखूबी बुनती थी..कॉलोनी या यूँ कहिये कि शहर में सबसे स्मार्ट होने के नाते ( इसे आप मेरी आत्ममुग्धता भी कह सकते हैं) सबका ध्यान मुझ पर ही रहता था..इसलिए माँ का डर जायज़ तो था ..,, मन ही मन फूल के कुप्पा होती थी.
जब से होश संभाला खुद को उसी छोटे से शहर में पाया...अकेली होने की वजह से मुझ में बहुत बचपना था...छोटे बच्चो की आवाज बना के बोलना और उसी आवाज में गाना गाने का मुझे अच्छा अभ्यास था..अक्सर फ़रमाइश पर मैं अपने हुनर के जलवे दिखाती थी..गुड्डे गुड़ियों से खेलना..सड़क से छोटे पिल्लै पकड़ के घर ले आना..और उन्हें नहला कर साफ़ करना..बेहद सुकून देता था और माँ के घर लौटने से पहले उन्हें वापस छोडना भी मजबूरी होता था.मेरी माँ को कुत्तो से बहुत एलर्जी थी...और मुझे बहुत प्रेम.
मैं साईकिल से स्कूल जाया करती थी...एक दिन स्कूल से वापस लौटते वक़्त मैं साईकिल में हवा भरवाने रुकी..साईकिल वाले की दूकान के पास ३-४ छोटे पिल्लै घूम रहे थे..बस फिर क्या था मेरा पिल्ला प्रेम जाग उठा..मैं बोली "भैया ये तो बड़े प्यारे हैं.."
"लल्ली ले जाओ पाल लो..."
मुझे उसका प्रस्ताव पसंद आया...मैंने एक सबसे तंदरुस्त पिल्ला पसंद किया और एक हाथ से साईकिल चलाते हुए और एक हाथ में पिल्ला थामे किसी तरह घर पहुची..मन बहुत खुश था..खुद को मैं बहुत जिम्मेदार महसूस कर रही थी..उसे साफ़ सुथरा कर के ...उसके लिए बिस्तर बिछाया और मन ही मन ठान लिया कि आज माँ को पिल्ला पालने के लिए मना के ही रहूंगी वरना खाना पीना छोड़ दूंगी...वैसे इस तरह की घटनाएँ पहले भी कई बार हो चुकी थी...और हर बार मेरी ही हार होती थी...होना वही था जो होता आया..अगले दिन पिल्ला वापस उसी दुकान पर था...
मेरे दसवीं के इम्तेहान होने वाले थे...माँ पढाई को लेकर बहुत सख्त थी..और टीचर की लड़की के कम नंबर आये ये कैसे बर्दास्त करती ?इसलिए पहले ही बहुत सारे वादे हो चुके थे..कि फर्स्ट डिवीज़न लाने पर क्या क्या मिलेगा..?उन्ही दिनों सामने वाले घर में रहने वाला लड़का देवेर्शी जो मेरे बचपन का दोस्त था...एक सफ़ेद चूहा लेकर आया..वो भी मेरे तरह अपने पशु प्रेम से विवश था और अपने घर वालो के सामने हार मानते हुए उसने पिल्लै की बजाय चूहे पर संतोष कर लिया था..मैंने भी सोचा पिल्ला नहीं तो चूहा ही सही..बस मैंने जिद पकड़ ली कि मुझे तो सफ़ेद चूहा ही चाहिए फर्स्ट आने पर...माँ को भी लगा कि ये सौदा बुरा नहीं तो वो झट से मान गयीं...
मैंने खूब मन लगा कर पढाई की..इम्तेहान दिए..रिजल्ट आने वाला था और माँ को मुझ से ज्यादा घबराहट थी...यूपी बोर्ड का रिजल्ट आना एक बहुत बड़ा मौका होता था...जब सब टकटकी लगाये पेपर वाले का इंतज़ार करते..उस टाइम इन्टरनेट का प्रचलन ज्यादा नहीं था...सुबह से ही दिल की धड़कने दुगनी थी..शायद मेरी माँ की तिगुनी होंगी...गर्मी के दिन थे और भरी दोपहर में पेपर वाले का इंतज़ार ...पसीना तो आना ही था लेकिन पसीना गर्मी की वजह से कम और रिजल्ट के डर से ज्यादा था ...कभी घर की खिड़की से झांकती तो कभी नीचे उतर के कॉलोनी के लोगो से पूछ लेती "आया क्या ?”
..और उनकी
मुंडी इनकार में
हिल जाती ...और
उस पर एक
सवाल जो मेरी
माता श्री की
ओर से बार
बार उठाया जा
रहा था- "तुमने
पेपर तो अच्छे
दिए थे न ...कुछ छोड़
के तो नहीं
आई थी
"
अब आप लोग
ही सोचें, पेपर
कभी बताया जाता
है कि खराब
हुआ अरे रिजल्ट
आने तक चैन
से जीना है
या नहीं.और
मैं मन
में डरते हुए
उन्हें बार बार
आश्वस्त करती कि
पूरे यू पी बोर्ड में
इतने अच्छे पेपर
किसी के नहीं
हुए होंगे .... !
खैर दोपहर बाद पेपर आया तो कॉलोनी में भगदड़ मच गयी ,उस समय मेरे साथ कॉलोनी के और भी पांच छह बच्चे थे जिनका भविष्य उस अखबार में छपा हुआ था...या नहीं छपा था.. देवेर्शी पेपर लेके आ रहा था "तू तो फर्स्ट आई है ..मैंने तेरा नंबर देख लिया ..मैं सेकंड रह गया " ...
खैर दोपहर बाद पेपर आया तो कॉलोनी में भगदड़ मच गयी ,उस समय मेरे साथ कॉलोनी के और भी पांच छह बच्चे थे जिनका भविष्य उस अखबार में छपा हुआ था...या नहीं छपा था.. देवेर्शी पेपर लेके आ रहा था "तू तो फर्स्ट आई है ..मैंने तेरा नंबर देख लिया ..मैं सेकंड रह गया " ...
लेकिन मेरी माँ
को उस पर
कतई भरोसा नहीं
था ..उन्होंने
भारी मशकत करते
हुए मेरा रोल
नंबर ढूँढने की
नाकामयाब सी कोशिश
की...और
तुरंत बी पी
बढ़ा लिया "इसमें
तो तेरा नंबर
ही नहीं है "
" लाओ अब मैं देख लूँ " वो मेरे रोल नंबर के आस पास ही भटक रही थी पर उन्हें मेरा ही नंबर नहीं दिखा रहा था ..खैर उन्हें चेक कराया कि नंबर के आगे F (फर्स्ट ) लिखा है..4बार उन्होंने क्रॉस चेक किया ."हे भगवान इतना अविश्वास "..मैंने मन में अपना सर पकड़ लिया बाहर तो ऐसा करना उनके क्रोध को आमंत्रित करना होता .
ऊपर घर में आकर वो ख़ुशी से डांस जैसा कुछ करने लगीं ठीक ऐसा ही डांस जैसा उन्होंने तब भी किया था जब मैं चार साल की थी और पहली बार रिजल्ट लेकर घर आई थी. मेरे हाथ में ट्राफी थी और मैंने बोला था कि मैं क्लास में फर्स्ट आई हूँ . इससे ये बात मेरे मन में जम गयी कि इतिहास खुद को दोहराता है.
बधाइयों और मिठाई का सिलसिला चल रहा था घर में फ़ोन भी नया लगा लगा था लेकिन बचत के डर से मेरी माँ ने कम ही लोगो को फ़ोन किया... हाँ किसी का फ़ोन खुद आ गया तो जम के पंचायत भी की और मेरे फर्स्ट आने का सारा क्रेडिट खुद के त्याग और मेहनत पर ले लिया .
"चलो कोई बात नहीं ...मुझे अब चूहा ही दिला दो ये सोच के मैंने अपने बाल मन को समझाया "
अगले दिन जब मम्मी कॉलेज से वापस आई तो उनके हाथ में एक थैली थी जिसमे एक नहीं २ चूहे थे ...एक जोड़ा
मेरे आनंद की सीमा नहीं थी मैंने तुरंत देवेर्शी को बुलाया वो भी बहुत खुश हुआ ..हमने फ़ौरन से पेश्तर उनका नामकरण किया सोनू और मोनू ..सोनू चुहिया थी और मोनू चूहा
फिर उनका एक घर बनाने का सोचा ..मैंने जूते के पुराने डब्बे लिए और एक शानदार सा डबल स्टोरी फ्लैट बनाया ...बड़ी मेहनत से खिड़कियाँ और सीढियां बनायीं ...फ्लैट का इंटीरियर किया ..ये एक जापानी स्टाइल का गत्ते का घर बन गया था जो भूकंप से सुरक्षित था ...मैं खुद को बहुत बड़ा इंजिनियर समझ रही थी आखिर पिता इंजिनियर थे कुछ चीजें खून में आ जाती हैं
सोचा गृह प्रवेश किया जाये ... देव की फैमिली को चाय पर बुलाया उसके पापा जो हिंदी के अध्यापक थे ,को मुख्य अतिथि बनाया गया उनका नाम मैंने और मेरी माँ ने फल संख्या ३२ रखा हुआ था इस नाम के पीछे एक कहानी है ...चलिए सुना देती हूँ बाद में भूल जाउंगी
हिंदी का अध्यापक होने के नाते वो सभी रसों से भरे हुए थे लेकिन हास्य और व्यंग रस ज्यादा प्रबल थे ...बचत उनका मूलमंत्र था सड़क पर एक कील भी मिल जाए तो सहेज लेते थे बला के कंजूस थे ..एक बार उनके घर में ताला लगा था तो वो अपना कुछ सामान जिसमे कुछ अमरुद और केले थे हमारे घर रख गए .थोड़ी देर बाद जब मैं घर से बाहर निकली तो उनके दरवाज़े पर चोक से लिखा था "सामने से सामान ले लेना फल संख्या ३२ "...मैंने तुरंत वापस आके फल गिने ३२ ही थे ..२० अमरुद और १२ केले ...बस तभी से उनका नाम फल संख्या ३२ हो गया
तो देवेर्शी के पापा ने मंत्र पढ़े ,थोडा पूजा पाठ हुआ ..वो बच्चो में बिलकुल बच्चे बन जाते थे ...घर को लाल फीते से बांधा हुआ था ..उसे काटा गया ...तालियाँ बजायी गयी ...देवेर्शी का पूरा परिवार पूरे जोश से मौजूद था ...मेरे पापा रात में ही घर पहुचे थे और घर में चूहों को देख कर उन्होंने खास प्रतिक्रिया नहीं दी थी ..
.मेरे पिता जी थोड़े विचित्र स्वाभाव के थे वो गंभीर दिखने में अटूट विश्वास रखते थे ..वो स्थाई भाव में ऐसे ही थे अपने आप में खोये हुए से ...पर वो अभी अच्छे मेजबान की भूमिका में थे ..चाय बनाई गयी समोसे पहले ही बाबुराम की दूकान से माँगा लिए गए थे जो समोसे भी अपने जैसे विराट आकार के बनाता था ...
सोनू मोनू का गृह प्रवेश हुआ ...नालायक चूहों ने घर में जाते ही खिड़कियाँ काटनी शुरू कर दी ...अपनी आँखों के सामने अपनी कृति का विनाश कौन देख सकता है ..मैंने उन चूहों को खूब फटकारा ..पर वो धुन के पक्के थे .
२ चूहे संभालना मुश्किल था मुझे लगता था मोनू चूहा सोनू चुहिया को बिगाड़ रहा है दोनों मिल कर घर में बहुत नुक्सान कर रहे थे इसलिए मैं मोनू को किसी और को दे दिया ..अब सोनू चुहिया मेरी एकलौती बेटी बन गयी थी ..रोज़ सुबह मैं उसे नहलाती थी ..पाउडर छिड़कती..छोटे दिए में उसे दिन में तीन बार दूध दिया जाता ...सोनू को हमने पिंजड़े में बंद नहीं किया ..उसने पुरानी पड़ी एक गत्ते की अटैची में एक सुराख कर के अपना ठिकाना बना लिया ..अटैची में कुछ पुराने कपडे पड़े थे वह उन्ही में घुसी रहती और अपनी ज़रूरत का सामान जैसे साबुन के टुकडे सुखी रोटी के टुकड़े .रुई ,,,कागज़ उसने वहां जमा कर रखा था ..एक बार उसके बक्से की तलाशी लेने पर कई चिठियाँ भी मिली जो न मिल पाने के कारण हम पोस्ट मैन को कई बार कोस चुके थे ..जब घर में कोई नहीं होता था तो आई हुई डाक वो अपने बक्से में बड़े अहतियात से रख आती थी जो बाद में उसके कुल जमा चार दाँतों की धार आजमाने के काम आती ..उसके बाद हमने सोनू चुहिया को समझाने की नाकाम कोशिश भी की थी
मेरा नए कॉलेज में दाखिला हो चुका था ..मुझे घर वापस आने की जल्दी रहती... मेरे आते ही वो दौड़ कर आ जाती.. और मैं उसे कंधे पर बैठा लेती और फिर सारा दिन मेरे आस पास ही मंडराती रहती .....मैं पढाई भी करती तो उसको गोद में बैठा कर ...एक बार तो ट्यूशन भी ले गयी तो वहां केमिस्ट्री पर कम और चूहे पर ज्यादा चर्चा हुई, इसलिए सर ने आगे से लाने को मना कर दिया... मेरी माता जी ने सख्त हिदायत दी थी कि चुहिया बिस्तर पर न आये ..इसलिए रात में जब माँ सो जाती तो मैं थोडा सा झुक कर सोनू को उसके बक्से से निकाल लेती और मम्मी के जागते ही उसे वापस बक्से में रख देती. खुशकिस्मती ये थी कि वो बक्स डबल बेड के नीचे ही रखा रहता था . ..पर वो बहुत तेज़ थी ठीक 5 बजे वो बिस्तर पर आ कर तेज तेज दौड़ने लगती कभी मेरे ऊपर कंभी मम्मी के ऊपर और मम्मी उसे गुस्से में उठा कर दूर फेक देती और मेरे हृदय पर चोट लगती आखिर सोनू को मैंने अपनी बेटी माना था ..और इस बात पर रोज़ मेरा उनसे झगडा भी हो जाता ..फिर मैं सोनू को दुलार करती ..
माँ को शिकायत थी कि मैं पढाई में ध्यान नहीं दे रही हूँ चुहिया के कारण ...अक्सर वो सोनू को चुहिया ही कहती थी इससे पता चलता था कि उनके पशु विरोधी मन ने उसे कभी अपनी नातिन नहीं माना ( मैंने उन्हें सोनू की नानी का ख़िताब दे दिया था )...पर ऐसा नहीं था मैं तो बहुत पढाई करती थी ...
" लाओ अब मैं देख लूँ " वो मेरे रोल नंबर के आस पास ही भटक रही थी पर उन्हें मेरा ही नंबर नहीं दिखा रहा था ..खैर उन्हें चेक कराया कि नंबर के आगे F (फर्स्ट ) लिखा है..4बार उन्होंने क्रॉस चेक किया ."हे भगवान इतना अविश्वास "..मैंने मन में अपना सर पकड़ लिया बाहर तो ऐसा करना उनके क्रोध को आमंत्रित करना होता .
ऊपर घर में आकर वो ख़ुशी से डांस जैसा कुछ करने लगीं ठीक ऐसा ही डांस जैसा उन्होंने तब भी किया था जब मैं चार साल की थी और पहली बार रिजल्ट लेकर घर आई थी. मेरे हाथ में ट्राफी थी और मैंने बोला था कि मैं क्लास में फर्स्ट आई हूँ . इससे ये बात मेरे मन में जम गयी कि इतिहास खुद को दोहराता है.
बधाइयों और मिठाई का सिलसिला चल रहा था घर में फ़ोन भी नया लगा लगा था लेकिन बचत के डर से मेरी माँ ने कम ही लोगो को फ़ोन किया... हाँ किसी का फ़ोन खुद आ गया तो जम के पंचायत भी की और मेरे फर्स्ट आने का सारा क्रेडिट खुद के त्याग और मेहनत पर ले लिया .
"चलो कोई बात नहीं ...मुझे अब चूहा ही दिला दो ये सोच के मैंने अपने बाल मन को समझाया "
अगले दिन जब मम्मी कॉलेज से वापस आई तो उनके हाथ में एक थैली थी जिसमे एक नहीं २ चूहे थे ...एक जोड़ा
मेरे आनंद की सीमा नहीं थी मैंने तुरंत देवेर्शी को बुलाया वो भी बहुत खुश हुआ ..हमने फ़ौरन से पेश्तर उनका नामकरण किया सोनू और मोनू ..सोनू चुहिया थी और मोनू चूहा
फिर उनका एक घर बनाने का सोचा ..मैंने जूते के पुराने डब्बे लिए और एक शानदार सा डबल स्टोरी फ्लैट बनाया ...बड़ी मेहनत से खिड़कियाँ और सीढियां बनायीं ...फ्लैट का इंटीरियर किया ..ये एक जापानी स्टाइल का गत्ते का घर बन गया था जो भूकंप से सुरक्षित था ...मैं खुद को बहुत बड़ा इंजिनियर समझ रही थी आखिर पिता इंजिनियर थे कुछ चीजें खून में आ जाती हैं
सोचा गृह प्रवेश किया जाये ... देव की फैमिली को चाय पर बुलाया उसके पापा जो हिंदी के अध्यापक थे ,को मुख्य अतिथि बनाया गया उनका नाम मैंने और मेरी माँ ने फल संख्या ३२ रखा हुआ था इस नाम के पीछे एक कहानी है ...चलिए सुना देती हूँ बाद में भूल जाउंगी
हिंदी का अध्यापक होने के नाते वो सभी रसों से भरे हुए थे लेकिन हास्य और व्यंग रस ज्यादा प्रबल थे ...बचत उनका मूलमंत्र था सड़क पर एक कील भी मिल जाए तो सहेज लेते थे बला के कंजूस थे ..एक बार उनके घर में ताला लगा था तो वो अपना कुछ सामान जिसमे कुछ अमरुद और केले थे हमारे घर रख गए .थोड़ी देर बाद जब मैं घर से बाहर निकली तो उनके दरवाज़े पर चोक से लिखा था "सामने से सामान ले लेना फल संख्या ३२ "...मैंने तुरंत वापस आके फल गिने ३२ ही थे ..२० अमरुद और १२ केले ...बस तभी से उनका नाम फल संख्या ३२ हो गया
तो देवेर्शी के पापा ने मंत्र पढ़े ,थोडा पूजा पाठ हुआ ..वो बच्चो में बिलकुल बच्चे बन जाते थे ...घर को लाल फीते से बांधा हुआ था ..उसे काटा गया ...तालियाँ बजायी गयी ...देवेर्शी का पूरा परिवार पूरे जोश से मौजूद था ...मेरे पापा रात में ही घर पहुचे थे और घर में चूहों को देख कर उन्होंने खास प्रतिक्रिया नहीं दी थी ..
.मेरे पिता जी थोड़े विचित्र स्वाभाव के थे वो गंभीर दिखने में अटूट विश्वास रखते थे ..वो स्थाई भाव में ऐसे ही थे अपने आप में खोये हुए से ...पर वो अभी अच्छे मेजबान की भूमिका में थे ..चाय बनाई गयी समोसे पहले ही बाबुराम की दूकान से माँगा लिए गए थे जो समोसे भी अपने जैसे विराट आकार के बनाता था ...
सोनू मोनू का गृह प्रवेश हुआ ...नालायक चूहों ने घर में जाते ही खिड़कियाँ काटनी शुरू कर दी ...अपनी आँखों के सामने अपनी कृति का विनाश कौन देख सकता है ..मैंने उन चूहों को खूब फटकारा ..पर वो धुन के पक्के थे .
२ चूहे संभालना मुश्किल था मुझे लगता था मोनू चूहा सोनू चुहिया को बिगाड़ रहा है दोनों मिल कर घर में बहुत नुक्सान कर रहे थे इसलिए मैं मोनू को किसी और को दे दिया ..अब सोनू चुहिया मेरी एकलौती बेटी बन गयी थी ..रोज़ सुबह मैं उसे नहलाती थी ..पाउडर छिड़कती..छोटे दिए में उसे दिन में तीन बार दूध दिया जाता ...सोनू को हमने पिंजड़े में बंद नहीं किया ..उसने पुरानी पड़ी एक गत्ते की अटैची में एक सुराख कर के अपना ठिकाना बना लिया ..अटैची में कुछ पुराने कपडे पड़े थे वह उन्ही में घुसी रहती और अपनी ज़रूरत का सामान जैसे साबुन के टुकडे सुखी रोटी के टुकड़े .रुई ,,,कागज़ उसने वहां जमा कर रखा था ..एक बार उसके बक्से की तलाशी लेने पर कई चिठियाँ भी मिली जो न मिल पाने के कारण हम पोस्ट मैन को कई बार कोस चुके थे ..जब घर में कोई नहीं होता था तो आई हुई डाक वो अपने बक्से में बड़े अहतियात से रख आती थी जो बाद में उसके कुल जमा चार दाँतों की धार आजमाने के काम आती ..उसके बाद हमने सोनू चुहिया को समझाने की नाकाम कोशिश भी की थी
मेरा नए कॉलेज में दाखिला हो चुका था ..मुझे घर वापस आने की जल्दी रहती... मेरे आते ही वो दौड़ कर आ जाती.. और मैं उसे कंधे पर बैठा लेती और फिर सारा दिन मेरे आस पास ही मंडराती रहती .....मैं पढाई भी करती तो उसको गोद में बैठा कर ...एक बार तो ट्यूशन भी ले गयी तो वहां केमिस्ट्री पर कम और चूहे पर ज्यादा चर्चा हुई, इसलिए सर ने आगे से लाने को मना कर दिया... मेरी माता जी ने सख्त हिदायत दी थी कि चुहिया बिस्तर पर न आये ..इसलिए रात में जब माँ सो जाती तो मैं थोडा सा झुक कर सोनू को उसके बक्से से निकाल लेती और मम्मी के जागते ही उसे वापस बक्से में रख देती. खुशकिस्मती ये थी कि वो बक्स डबल बेड के नीचे ही रखा रहता था . ..पर वो बहुत तेज़ थी ठीक 5 बजे वो बिस्तर पर आ कर तेज तेज दौड़ने लगती कभी मेरे ऊपर कंभी मम्मी के ऊपर और मम्मी उसे गुस्से में उठा कर दूर फेक देती और मेरे हृदय पर चोट लगती आखिर सोनू को मैंने अपनी बेटी माना था ..और इस बात पर रोज़ मेरा उनसे झगडा भी हो जाता ..फिर मैं सोनू को दुलार करती ..
माँ को शिकायत थी कि मैं पढाई में ध्यान नहीं दे रही हूँ चुहिया के कारण ...अक्सर वो सोनू को चुहिया ही कहती थी इससे पता चलता था कि उनके पशु विरोधी मन ने उसे कभी अपनी नातिन नहीं माना ( मैंने उन्हें सोनू की नानी का ख़िताब दे दिया था )...पर ऐसा नहीं था मैं तो बहुत पढाई करती थी ...
एक बार राखी
का दिन था ..मेरा कोई
भाई नहीं था
लेकिन मैंने राखी
भाई बना रखा
था ...और
मेरी माँ मुझे
राखी बांधती थी ..बुआओं की
राखी आती थी ..मैं पापा
को बांध के
अच्छी खासी रकम
वसूलती थी
...मैंने थाल सजाया
और गुलाब जामुन
से भरा हुआ
डब्बा टेबल पर
रख दिया ...और
अपने राखी भाई
को बुलाने उसके
घर चली गयी
जो मेरे पड़ोस
में ही रहता
था ..वापस
आकर देखा तो
डिब्बा आधा
खाली था
...बस मैं पापा
पर बिगड़ पड़ी
"अभी राखी बंधी
तक नहीं और
आपने डिब्बा खाली
कर दिया " वो
मीठे के बहुत
शौक़ीन थे पर
उन्होंने बोला..अरे
भाई मैंने तो
देखा तक नहीं
..सब हैरान ..कहाँ
गए ये सोच
ही रहे थे
कि ..सोनू
चुहिया टेबल पर
चढ़ी और एक गुलाब जामुन
मुंह में
दबा के चल
पड़ी उसने अपने
बक्से में ढेर
लगा दिया था ..उसकी हर
हरकत पर मुझे
ऐसे प्यार आता
जैसे मैया यसोदा
को कान्हा पर
आता होगा
मैं जब भी मार्किट या पोस्ट ऑफिस जाती सोनू को हमेशा बैग में रख के ले जाती .वो छोटा शहर था इसलिए सब जान गए थे और अक्सर पूछते आपका चूहा कैसा है
जब मैं अधलेटी हो कर टीवी देखते हुए भुट्टा खाती तो वह एक कुशल जिम्नास्टिक की तरह टेढ़ी हो कर अपना हिस्सा कुतर लेती ..
इस तरह सोनू मेरे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गयी थी..सोनू चुहिया में भी ईर्षा जैसा मानवीय तत्व है इसका पता मुझे तब चला जब देवेर्शी एक छोटा पिल्ला लाया ..और हम दोनों उस पिल्लै के साथ खेलने लगे और मैंने सोनू को बिलकुल इगनोर कर दिया क्यूंकि पहला प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है ..मेरा मतलब है पिल्ला पालने की इच्छा तो मेरे मन में बचपन से थी और सोनू तो उस इच्छा में हुए समझौते का परिणाम थी ...सोनू ने भी मुझे इग्नोर किया और पिल्लै की नाक पर काट के भाग गयी ..पिल्ला जोर जोर से चिल्लाने लगा और उसकी नाक से खून बहने लगा.. मैं और देवेर्शी दोनों घबरा गए पिल्ला चुप ही नहीं हो रहा था ..पिल्ला किराये का था मतलब देवेर्शी उसे किसी के घर से थोड़ी देर खेलने को मांग कर लाया था ..फिर हमने जैसे तैसे उसे चुप कराया और उसकी नाक पर dettol लगाया और उसे छोड़ आये ...सोनू ने पूरा दिन मुझ से बात नहीं की और खाना भी नहीं खाया ...हो सकता है बक्से में खाया हो .फिर मैंने उससे वादा किया कि दोबारा ऐसा नहीं होगा तब वो मानी
देखते ही देखते दो साल होने को आये ..फिर १२ वीं के इम्तेहान पास आने लगे और सोनू मेरी माता श्री की आँखों में खटकने लगी.. उन्ही दिनों मुझे चिकन पॉक्स हो गया ..बहुत हालत खराब थी
वो मेरे और सोनू के बीच दीवार बन गई.. उन्होंने सोनू को हमारी काम वाली मुन्नी को सौप दिया मुझे ये दिलासा दे कर कि एग्जाम के बाद वापस ले आएंगे ..मैं बीमार थी इसलिए मजबूर थी ..सोनू को याद करके रोज़ रॊ लेती थी ..जैसे तैसे एग्जाम दिए चिकन पॉक्स होने की वजह से ज्यादा पढाई नहीं कर पायी ..इस बार भी माँ को रिजल्ट का इंतज़ार था और मुझे सोनू के वापस घर आने का...मेरी फिर फर्स्ट डिवीज़न आई.. इस बार डिस्टिंक्शन के साथ ...माँ बहुत खुश थी ...शाम को मुन्नी से मैंने सोनू को वापस लाने को कहा तो उसने बताया " सोनू चुहिया को एक महीने पहले ही बिल्ली खा गयी . आपके इम्तिहान थे इसलिए मेम साहब ने बताने को मना किया था ".
मेरा मन बुझ गया ....इस तरह १० वीं के रिजल्ट से शुरू हुआ सिलसिला १२ वीं के रिजल्ट पर ख़त्म हुआ ...और सोनू बस एक याद बन के मेरे मन में रह गयी
इरा टाक
मैं जब भी मार्किट या पोस्ट ऑफिस जाती सोनू को हमेशा बैग में रख के ले जाती .वो छोटा शहर था इसलिए सब जान गए थे और अक्सर पूछते आपका चूहा कैसा है
जब मैं अधलेटी हो कर टीवी देखते हुए भुट्टा खाती तो वह एक कुशल जिम्नास्टिक की तरह टेढ़ी हो कर अपना हिस्सा कुतर लेती ..
इस तरह सोनू मेरे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गयी थी..सोनू चुहिया में भी ईर्षा जैसा मानवीय तत्व है इसका पता मुझे तब चला जब देवेर्शी एक छोटा पिल्ला लाया ..और हम दोनों उस पिल्लै के साथ खेलने लगे और मैंने सोनू को बिलकुल इगनोर कर दिया क्यूंकि पहला प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है ..मेरा मतलब है पिल्ला पालने की इच्छा तो मेरे मन में बचपन से थी और सोनू तो उस इच्छा में हुए समझौते का परिणाम थी ...सोनू ने भी मुझे इग्नोर किया और पिल्लै की नाक पर काट के भाग गयी ..पिल्ला जोर जोर से चिल्लाने लगा और उसकी नाक से खून बहने लगा.. मैं और देवेर्शी दोनों घबरा गए पिल्ला चुप ही नहीं हो रहा था ..पिल्ला किराये का था मतलब देवेर्शी उसे किसी के घर से थोड़ी देर खेलने को मांग कर लाया था ..फिर हमने जैसे तैसे उसे चुप कराया और उसकी नाक पर dettol लगाया और उसे छोड़ आये ...सोनू ने पूरा दिन मुझ से बात नहीं की और खाना भी नहीं खाया ...हो सकता है बक्से में खाया हो .फिर मैंने उससे वादा किया कि दोबारा ऐसा नहीं होगा तब वो मानी
देखते ही देखते दो साल होने को आये ..फिर १२ वीं के इम्तेहान पास आने लगे और सोनू मेरी माता श्री की आँखों में खटकने लगी.. उन्ही दिनों मुझे चिकन पॉक्स हो गया ..बहुत हालत खराब थी
वो मेरे और सोनू के बीच दीवार बन गई.. उन्होंने सोनू को हमारी काम वाली मुन्नी को सौप दिया मुझे ये दिलासा दे कर कि एग्जाम के बाद वापस ले आएंगे ..मैं बीमार थी इसलिए मजबूर थी ..सोनू को याद करके रोज़ रॊ लेती थी ..जैसे तैसे एग्जाम दिए चिकन पॉक्स होने की वजह से ज्यादा पढाई नहीं कर पायी ..इस बार भी माँ को रिजल्ट का इंतज़ार था और मुझे सोनू के वापस घर आने का...मेरी फिर फर्स्ट डिवीज़न आई.. इस बार डिस्टिंक्शन के साथ ...माँ बहुत खुश थी ...शाम को मुन्नी से मैंने सोनू को वापस लाने को कहा तो उसने बताया " सोनू चुहिया को एक महीने पहले ही बिल्ली खा गयी . आपके इम्तिहान थे इसलिए मेम साहब ने बताने को मना किया था ".
मेरा मन बुझ गया ....इस तरह १० वीं के रिजल्ट से शुरू हुआ सिलसिला १२ वीं के रिजल्ट पर ख़त्म हुआ ...और सोनू बस एक याद बन के मेरे मन में रह गयी
इरा टाक