जयपुर से लगभग पैतीस किलोमीटर दूर जयपुर -अजमेर हाईवे से दो किलोमीटर अन्दर जा कर सावरदा गाँव है , जिसकी आबादी तकरीबन चार हज़ार है हाईवे के शोर शराबे से दूर , हरियाली के बीच बसा हुआ !
सावरदा में बसा है सावरदा साहिब गुरुदुआरा , जो लगभग तीन सौ साल पुराना कहा जाता है , सामने ही कई एकड़ में फैला एक तालाब और ठाकुरों की बगीची है। तालाब की पाल पर कई सौ साल पुराने बरगद के पेड़ मनोरम छटा बनाते हैं ।
गुरुदुआरा लगभग १० बीघे में फैला हुआ है , इसमें एक प्राचीन बावड़ी भी है ,जिसका अभी जीर्णोद्धार किया जा रहा है। गुरुदुआरे में एक लंगर है जहाँ भोजन सेवा दी जाती है।
गुरुदुआरे के सेवादार बाबा चौथूमल उदासी जो नब्बे साल के हैं , ने इसका इतिहास बताया
सबसे पहले गुरु नानक जी के पुत्र श्री चंदजी यहाँ आये और लगभग पांच वर्ष यहाँ पर साधना की , उसके बाद वो आगरा चले गए ।
दिल्ली में गुरुतेग बहादुर के धड़ का अंतिम संस्कार करके लक्खी सा बंजारा सावरदा पहुँचे और कड़ा प्रसाद बनाया , गुरुनानक देव ने उन्हें दर्शन दिया और वहीँ गाँव बसा डेरा बना श्री चंद की भक्ति करने का आदेश दिया ।
उसके बाद से लक्खी सा बंजारा यही पर भक्ति करने लगे , कई सालों बाद गुरु गोविन्द सिंह जी भी यहाँ आये और तत्कालीन सेवादार बाबा कानरदस को दर्शन दिए । गुरु गोविन्द सिंह सावरदा में छह महीने रुके और उस दौरान उन्होंने अपने हाथ से मोरपंख से गुरुग्रंथ साहिब लिखा ।
इस कारण इस गुरुदुआरे की सिक्खों में बहुत मान्यता है और गुरु पर्वों पर दूर दूर से यहाँ दर्शन करने आते हैं ।
इरा टाक
गुरुदुआरा लगभग १० बीघे में फैला हुआ है , इसमें एक प्राचीन बावड़ी भी है ,जिसका अभी जीर्णोद्धार किया जा रहा है। गुरुदुआरे में एक लंगर है जहाँ भोजन सेवा दी जाती है।
गुरुदुआरे के सेवादार बाबा चौथूमल उदासी जो नब्बे साल के हैं , ने इसका इतिहास बताया
सबसे पहले गुरु नानक जी के पुत्र श्री चंदजी यहाँ आये और लगभग पांच वर्ष यहाँ पर साधना की , उसके बाद वो आगरा चले गए ।
दिल्ली में गुरुतेग बहादुर के धड़ का अंतिम संस्कार करके लक्खी सा बंजारा सावरदा पहुँचे और कड़ा प्रसाद बनाया , गुरुनानक देव ने उन्हें दर्शन दिया और वहीँ गाँव बसा डेरा बना श्री चंद की भक्ति करने का आदेश दिया ।
उसके बाद से लक्खी सा बंजारा यही पर भक्ति करने लगे , कई सालों बाद गुरु गोविन्द सिंह जी भी यहाँ आये और तत्कालीन सेवादार बाबा कानरदस को दर्शन दिए । गुरु गोविन्द सिंह सावरदा में छह महीने रुके और उस दौरान उन्होंने अपने हाथ से मोरपंख से गुरुग्रंथ साहिब लिखा ।
इस कारण इस गुरुदुआरे की सिक्खों में बहुत मान्यता है और गुरु पर्वों पर दूर दूर से यहाँ दर्शन करने आते हैं ।
इरा टाक